सूरज सवेरे से
जैसे उगा ही नहीं
बीत गया सारा दिन
बैठे हुए यहीं कहीं
टिपिर टिपिर टिप टिप
आसमान चूता रहा
बादल सिसकते रहे
जितना भी बूता रहा
सील रहे कमरे में
भीगे हुए कपड़े
चपके दीवारों पर
झींगुर औ' चपड़े
ये ही हैं साथी और
ये ही सहभोक्ता
मेरे हर चिन्तन के
चिन्तित उपयोक्ता
दोपहर जाने तक
बादल सब छँट गये
कहने को इतने थे
कोने में अँट गये
सूरज यों निकला ज्यों
उतर आया ताक़ से
धूप वह करारी, बोली
खोपड़ी चटाक से
ऐसी तच गयी जैसे
बादल तो थे ही नहीं
और अगर थे भी तो
धूप को है शर्म कहीं?
भीगे या सीले हुए
और लोग होते हैं
सूरज की राशि वाले
बादल को रोते हैं?
ओ मेरे निर्माता
देते तुम मुझको भी
हर उलझी गुत्थी का
ऐसा ही समाधान
या ऐसा दीदा ही
अपना सब किया कहा
औरों पर थोपथाप
बन जाता दीप्तिवान ।
-सुरेन्द्र शेखावत
वाह!!! बहुत खूब
ReplyDeleteवाह बेहतरीन रचना
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज रविवार (09-09-2018) को "चिट्ठागिरी करने का भी उसूल होता है" (चर्चा अंक-3089)
ReplyDeleteपर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
वाह बहुत खूबसूरत रचना ...बारिश का बयां
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