Saturday, September 22, 2018

तृष्णा...... भूरचन्द जयपाल( मधुप बैरागी)

धरा पर ना जल है मन-मीन विकल है
आतुर अतृप्त – सा मानव तन है

तृष्णाओं – सी बढ़ती जाती
तन-तरुवर की छांया लम्बी

धोरों की धरती पर ललनाओं का चलना
पांवों का जलना, जीवन को छलना

कितना दुष्कर है जीवन
मीलों पैदल ही चलना
तप्त रेत पांवों का जलना
जल-बिन हाथों का मलना

कैसा जीवन …………..?
जहां छलना ही छलना
कैसे मृगमरिचिकाओं से
अपनी गागर को भरना
रेत के सागर को तरना

कैसी विडम्बना है जीवन की
तृषित क्षुधायुक्त मानव को
फिर सूर्य-रश्मियां तप्त-उत्तप्त
जीना और दूभर कर जाती।।
?मधुप बैरागी

5 comments:

  1. बहुत सुन्दर

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  2. कैसी विडम्बना है जीवन की
    तृषित क्षुधायुक्त मानव को
    फिर सूर्य-रश्मियां तप्त-उत्तप्त
    जीना और दूभर कर जाती।। बहुत सुंदर रचना 👌

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  3. कितना दुष्कर है जीवन
    मीलों पैदल ही चलना
    तप्त रेत पांवों का जलना
    जल-बिन हाथों का मलना

    बहुत सुंदर।

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  4. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (23-09-2018) को "चाहिए पूरा हिन्दुस्तान" (चर्चा अंक-3103) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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