आँखों में मेरे एक सपना है,
दिल कहता है वो मेरा अपना है.
ख्वाब में जलता हूँ मैं जिसके लिए,
आज फिर उसे सरे राह तकना है.
रोज़ रोज़ की शरारतें खुद से ही,
अब खुद से ही बच निकलना है.
मैं डर जाता हूँ परछाई देखकर,
इस अंधेरे को भी मुझे छलना है
सारे आईने तोड़ दिए हैं मैंने,
क़दमों को फूँक फूँक के चलना है.
गुलाबों से ख़ुशबूँ आती नहीं है,
किताबों को भी अब संभलना है।
ज़िंदगी सूरज की मोहताज नहीं,
शाम से कहो मुझे अब ढलना है
-यश-
वाह क्या खूब ग़ज़ल कही हैं जनाब बहुत बहुत बधाई।
ReplyDeleteज़िंदगी सूरज की मोहताज नहीं,
शाम से कहो मुझे अब ढलना है
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (17-09-2018) को "मौन-निमन्त्रण तो दे दो" (चर्चा अंक-3097) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
बहुत खूब रचना 👌👌👌
ReplyDeleteबेहद खूबसूरत 👌👌👌
ReplyDelete