पल दो पल में ही ज़िदगी बदल जाती है।
ख़ुशी हथेली पर बर्फ़-सी पिघल जाती है।।
उम्र वक़्त की किताब थामे प्रश्न पूछती है,
जख़्म चुनते ये उम्र कैसे निकल जाती है।
दबी कोई चिंगारी होगी राख़ हुई याद में,
तन्हाई के शरारे में बेचैनियाँ मचल जाती है।
सुबह जिन्हें साथ लिये उगती है पहलू में,
उनकी राह तकते हर शाम ढल जाती है।
ख़्वाहिश लबों पर खिलती है हँसी बनकर,
आँसू बन उम्मीद पलकों से फिसल जाती है।
-श्वेता सिन्हा
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (09-07-2018) को "देखना इस अंजुमन को" (चर्चा अंक-3027) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
पल दो पल में ही ज़िदगी बदल जाती है।
ReplyDeleteख़ुशी हथेली पर बर्फ़-सी पिघल जाती है।।
सुबह जिन्हें साथ लिये उगती है पहलू में,
उनकी राह तकते हर शाम ढल जाती है।---
अत्यंत मंजा हुआ लेखन और लाजवाब भावों से सजी रचना प्रिय श्वेता | हार्दिक बधाई |
bahut sundar!
ReplyDelete