तिरा ख़याल कि ख़वाबों में जिन से है ख़ुशबू
वो ख़्वाब जिन में मिरा पैकर-ए-ख़याल है तू।
सता रही हैं मुझे बचपन की कुछ यादें
वो गर्मियों के शब़-ओ-रोज़ दोपहर की वो लू।
पचास साल की यादों के नक़्श और नक़्शे
वो कोई निस्फ़ सदी क़ब्ल का ज़माना-ए-हू।
वो गर्म-ओ-ख़ुश्क महीने वो जेठ वो बैसाख.
कि हाफ़िज़ में कभी आह कैं कभी आँसूं।
-रईस अमरोहवीं
मोहतरिम श़ायर रईस साहब की पूरी ग़ज़ल
पढ़वाना चाहते थे हम..
पर टाईप करने में असफल रहे
पूरी ग़ज़ल यहाँ पढ़ें
रोमन हिन्दी में है..
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