न ग़ुबार में न गुलाब में मुझे देखना
मेरे दर्द की आब-ओ-ताब में मुझे देखना
किसी वक्त शाम मलाल में मुझे सोचना
कभी अपने दिल की किताब में मुझे देखना
किसी धुन में तुम भी जो बस्तियों को त्याग दो
इसी रह-ए-ख़ानाख़राब में मुझे देखना
किसी रात माह-ओ-नजूम से मुझे पूछना
कभी अपनी चश्म-पुर-आब में मुझे देखना
इसी दिल से हो कर गुज़र गए कई कारवां
की हिज्रतों के ज़ाब में मुझे देखना
मैं न मिल सकूँ भी तो क्या हुआ कि फसाना हूँ
नई दास्तां नए बाब में मुझे देखना
मेरे ख़ार ख़ार सवाल में मुझे ढूँढना
मेरे गीत में मेरे ख़्वाब में मुझे देखना
मेरे आँसूओं ने बुझाई थी मेरी तश्नगी
इसी बर्गज़ीदा सहाब में मुझे देखना
वही इक लम्हा दीद था कि रुका रहा
मेरे रोज़-ओ-शब के हिसाब में मुझे देखना
जो तड़प तुझे किसी आईने में न मिल सके
तो फिर आईने के जवाब में मुझे देखना
-अदा ज़ाफ़री
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteवाह उम्दा बानगी।
ReplyDeleteनिःशब्द
ReplyDeleteजाफरी साहब की रचना से अवगत करवाने का धन्यवाद है जी आपका।
बहुत खूब
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (11-05-2018) को "वर्णों की यायावरी" (चर्चा अंक-2967) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'