सुप्त सबकी चेतनायें, क्या करूँ।
स्वयं व्याकुल हैं व्यथायें, क्या करूँ।
आधुनिकता के चले यूँ सिलसिले।
ढह रहे हैं मान्यताओं के किले।
हैं भँवर में भावना की किश्तियाँ;
दिग्भ्रमित हैं सोच वाले क़ाफ़िले।
खो गई सारी दिशायें, क्या करूँ।
सुप्त सबकी चेतनायें, क्या करूँ।
जो पुरातन था, सभी बोझल हुआ।
आस्थाओं का शिखर ओझल हुआ।
आजकल तो रक्त का सम्बन्ध भी;
स्वार्थ के जल से भरा बादल हुआ।
शुष्क हैं मन की घटायें, क्या करूँ।
सुप्त सबकी चेतनायें, क्या करूँ।
इक युवा चलती सड़क पर मर गया।
हर कोई उस रास्ते से घर गया।
कोई रुकने के लिए राज़ी न था;
शहर पूरा ही किनारा कर गया।
मृत हुई सम्वेदनायें, क्या करूँ।
सुप्त सबकी चेतनायें, क्या करूँ।
-बृज राज किशोर "राहगीर"
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (23-03-2017) को "तने को विस्तार दो" (चर्चा अंक-2918) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
अति सुंदर लेखन 🙏
ReplyDeleteसही कहा ...चेतना सुप्त हैं...संवेदना मर चुकी ...क्या टरे जगत का उद्धार कैसे होगा....
ReplyDeleteलाजवाब रचना ....
वाह!!!
वाह
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