हे बादल!
अब मेरे आँचल में तृणों की लहराई डार नहीं,
न है तुम्हारे स्वागत के लिये
ढेरों मुस्काते रंग
मेरा ज़िस्म
ईंट और पत्थरों के बोझ के तले
दबा है।
उस तमतमाये सूरज से भागकर
जो उबलते इंसान इन छतों के नीचे पका करते हैं
तुम नहीं जानते...
कि एक तुम ही हो
जिसके मृदु फुहार की आस रहती है इन्हें...
बादल! तुम बरस जाना...
अपनी ही बनाई कंक्रीट की दुनिया से ऊबे लोग
अपनी शर्म धोने अब कहाँ जायें?
-अजन्ता शर्मा
अंधाधुंध आधुनिकीकरण की अंधी दुनियाका विलाप बहुत ही विलक्षणता से चित्रित किया गया है। प्रेरक रचना हेतु अजन्ता शर्मा को बधाई।
ReplyDeleteशुभ प्रभात
बहुत खूबसूरत रचना
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (12-03-2018) को ) "नव वर्ष चलकर आ रहा" (चर्चा अंक-2907) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
बहुत बढ़िया
ReplyDeleteमर्मस्पर्शी रचना
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