बना के कठपुतली नचाते रहो
रखो दोनों शिराओं को तलवे के नीचे
हमारा क्या है.....
तुम कहो तो हम उठें
तुम कहो तो बैठे
चाहो तो सांस लेने के भी
समय तय कर दो
और जब भी तुम बोलो
हम बजा दें ताली,
हाँ एक रस्सी भी
बाँध दो टाँगों में
ताकि कहीं और का रूख
ना कर सकें
बिठा दो पहरे आँखों पर
तुम्हारे दिखाये के सिवा
कुछ देख ना सके,
सिल दो होंठ
कि तुम्हारे चाहे बिना
उसे हिला भी ना सकूं,
जकड़ दो पंखों को
कि लाख कोशिशों के बाद भी
स्वच्छन्द उड़ान भर ना सकूँ,
सुनो...
भले डाल दो काल-कोठारी में
बस एक झरोख़ा खुला रखना
ताकि जब निकले तुम्हारी झाँकी
झंडा फहराने को
तो जी भर उसे निहार सकूँ,
तुम्हारी जीत
और अपनी हार पे
सिर्फ़ और सिर्फ़ कुछ आँसू बहा सकूँ।
-ज्योति साह
वाह्ह्ह....लाज़वाब👌👌
ReplyDeleteअति सुंदर रचना
ReplyDeleteसुन्दर
ReplyDeleteघुटते एहसास आखिर बोल पडे।
ReplyDeleteनिशब्द रचना बोलते भाव।
लाजवाब।
बेहतरीन प्रस्तुतिकरण
ReplyDeleteउम्दा लेखन
ReplyDeleteक्या खूब लिखा है ज्योति जी ने..जकड़ दो पंखों को
ReplyDeleteकि लाख कोशिशों के बाद भी
स्वच्छन्द उड़ान भर ना सकूँ,....
बहुत खूब लिखा है
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (08-01-2018) को "बाहर हवा है खिड़कियों को पता रहता है" (चर्चा अंक-2842) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
खूबसूरत
ReplyDeleteलाजवाब रचना
ReplyDeleteवाह!!!