मैं
चुप से सुनती
चुप से कहती और
चुप सी ही रहती हूँ
मेरे
आप-पास भी
चुप रहता है
चुप ही कहता है और
चुप सुनता भी है
अपने
अपनों में सभी
चुप से हैं
चुप लिए बैठे हैं और
चुप से सोये भी रहते हैं
मुझसे
जो मिले वो भी
चुप से मिले
चुप सा साथ निभाया और
चुप से चल दिए
मेरी
ज़िन्दगी लगता है
चुप साथ बँधी
चुप संग मिली और
चुप के लिए ही गुज़री जाती है
कितनी
गहरी, लम्बी और
ठहरी सी है ये
मेरी
चुप की दास्ताँ........
- प्रियंका सिंह
priyanka.2008singh@gmail.com
बढ़िया।
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ReplyDeleteवाह... एक खूबसूरत रचना जो चुप तो नहीं है, पर बहुत कुछ बोल रही है.
ReplyDeleteवाह!!बहुत खूब !!👌
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (26-11-2017) को "दूरबीन सोच वाले" (चर्चा अंक-2799) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत खूब
ReplyDeleteचुप रहकर चुप से चुप कहा.....
ReplyDeleteबहुत सुन्दर चुप्पी....
वाह!!!
बहुत सुंदर प्रस्तुति।
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