अब मेरे दिल में नहीं है घर तेरा
ज़िक्र होता है मगर अक्सर तेरा
हाँ! ये माना है मुनासिब डर तेरा
आदतन नाम आ गया लब पर तेरा
भूल तो जाऊँ तुझे पर क्या करूँ
उँगलियों को याद है नम्बर तेरा
कर गया ज़ाहिर तेरी मजबूरियां
टाल देना बात यूँ हँस कर तेरा
शुक्र है! आया है पतझड़ लौट कर
बाग़ से दिखने लगा फिर घर तेरा
वो मुलाक़ात आख़िरी क्या खूब थी
भूल जाना लाश में खंजर तेरा
कोई बतलाये अगर मैं हूँ किधर
तब तो शायद बन सकूँ रहबर तेरा
हैं क़लम की भी तो कुछ मजबूरियाँ
थक गया हूँ नाम लिख लिख कर तेरा
बावरेपन की 'नकुल' अब हद हुई
इश्क़ उसको? वो भी मुझसे? सर तेरा!
बहुत सुन्दर।
ReplyDeleteवाह्ह्ह्ह बहुत खूब
ReplyDeleteवाह!!!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर...
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (09-07-2017) को 'पाठक का रोजनामचा' (चर्चा अंक-2661) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
Simply Beautiful...
ReplyDelete:
कभी कभी अच्छे शब्दों का, किसी भी भाषा के हों, स्थानापन्न तुरंत नहीं मिल पाता, जिसमें उतनी ही गहराई हो !
बहुत सुन्दर गजल ..
ReplyDeleteशुक्र है -क्या ख़ूब
ReplyDeleteसादगी से परिपूर्ण सुंदर ग़जल
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