घुंधला धुंधला सा स्वप्न था वो
तुम थमी थमी मुस्कुराहटों में गुम
हाथ में कलम लिए
मुझे सोचते
मुझे गुनगुनाते
मुझ पर नज़्म लिखते..
वहीं थिर गईं आँखे
वहीं स्थिर हो गया समय
सतत अविनाशी..
मैं उसी स्वप्न में कैद हो गई हूँ..
कि तुम चाहो
इससे अधिक कुछ चाह नही..
यही निर्वाण है मेरा
यही नितांत सुख..
आँखो में ठहरा ये स्वप्न
बस यही है एक शाश्वत सत्य ...
~निधि सक्सेना
खूब सुंदर भाव वाह्ह्ह👌👌
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (26-07-2017) को पसारे हाथ जाता वो नहीं सुख-शान्ति पाया है; चर्चामंच 2678 पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुन्दर....
ReplyDeleteसुन्दर।
ReplyDeleteउत्तम रचना
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