परछाई छिपने लगी , देखें सूरज घूर।
पैरों में छाले पड़े, मंजिल फिर भी दूर।।
गहराया है सांझ का, रंग पुनः वह लाल।
सम्मुख काली रात है, और वक्त विकराल।।
मजबूरी अभिशाप बन, ले आती है साथ।
निर्लजता के पार्श्व में, फैले दोनों हाथ।।
धन-कुबेर कब पा सका, धन पाकर भी चैन।
तड़प-तड़प जीता रहा, मूँद लिए फिर नैन।।
उसके अपने अंत तक, साथ चले अरमान।
बचपन से सुनता रहा, जो केवल फरमान।।
-अशोक कुमार रक्ताले
सुंदर प्रस्तुति।
ReplyDeleteसुन्दर।
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