उसकी कत्थई आँखों में हैं जंतर-मंतर सब
चाक़ू-वाक़ू, छुरियाँ-वुरियाँ, ख़ंजर-वंजर सब
जिस दिन से तुम रूठीं मुझ से रूठे-रूठे हैं
चादर-वादर, तकिया-वकिया, बिस्तर-विस्तर सब
मुझसे बिछड़ कर वह भी कहाँ अब पहले जैसी है
फीके पड़ गए कपड़े-वपड़े, ज़ेवर-वेवर सब
आखिर मै किस दिन डूबूँगा फ़िक्रें करते है
कश्ती-वश्ती, दरिया-वरिया लंगर-वंगर सब
- राहत इन्दोरी
राहत इन्दोरी साहब के क्या कहने ! एक से बढ कर एक शेर ! लाजवाब प्रस्तुति ! बहुत खूब
ReplyDeleteसुन्दर।
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "अनजान से रास्ते, हम और आप... “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteबहुत खूब...।
ReplyDeleteसच में बेहद उम्दा।
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