बचा हुआ हूँ शेष
जितना नम आँखों में विदा गीत !
बची हुई है जिजीविषा
जितनी किसी की प्रतीक्षा में
पदचापों की झूठी आहट !
बची हुई है मुस्कान
जितना मुर्झाने से पूर्व फूल !
बचा हुआ है सपना
जितना किसी मरणासन्न के मुँह में
डाला गंगाजल !
बचा हुआ है रास्ता
जितना अंतिम यात्रा में श्मशान !
और तुम ! बचे हुए हो
इन्हीं अटकलों के बीच कहीं !
गुनगुनायी जाती धुन की तरह...
-कृष्ण सुकुमार
सुन्दर।
ReplyDeleteसुन्दर रचना
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