आज वह,
वो नीना नहीं कुछ बदली सी थी। उसने अपने सिर के सारे बाल मुंडवा दिये थे।
काली शर्ट व पैंट पहने कुछ उदास-सी लग रही थी। कुछ ही समय में पता चला कि इन छुट्टियों में उसके पापा की मृत्यु हो गई थी।
सुनकर बुरा लगा। शाम को मैं करीब चार बजे उसके घर गई। उसने मुझे बैठक में बिठाया। पानी लाई व मेरे पास बैठ गई।
पूछने पर पता चला कि उसके पिता की मृत्यु हृदय गति रूकने के कारण हुई थी। रात का समय था, वह उन्हें अस्पताल ले गई जहाँ डाक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया।
घर आकर उसने अपने रिश्तेदारों को पिता जी की मृत्यु की सूचना दे दी। सुबह पूरा जमघट लग गया। सवाल कि संस्कार पर कौन बैठेगा?
चाचा के 3 बेटे थे। तीनों खिसक लिये। समय का अभाव था। नीना की दो बड़ी बहनें शादीशुदा थी, उनके बच्चे व पति भी व्यस्त थे।
वह 10 दिन बैठ नहीं सकते थे। लाश को उठाने से पहले यह कानाफूसी नीना तक पहुँच गई। वह माँ के पास बैठी थी। उसने आँसू पोंछे व पिछवाड़े वाले ताऊजी से कहा जो रात से उनके साथ थे, ‘‘ताऊजी, मैं करूँगी पिताजी का अन्तिम संस्कार, मैं बैठूँगी सारी पूजा पर।’’
सबके दाँतों तले अंगुली आ गई। पर नीना ने किसी की परवाह न की। कंधे पर सफ़ेद कपड़ा रख कर, सबसे पहले अपने पापा की लाश को कंधा दिया व शमशान तक पूरी विधिपूर्वक सब कार्य किया।
बताते-बताते उसकी आँखें कई बार नम हुई। बोली, ‘‘मैडम, मेरे पापा अक्सर कहते थे मेरी दो बेटियाँ, एक बेटा है। मुझे क्या पता था कि आज...........
’’ मैंने उसके कंधे पर हाथ रखा और कहा, ‘‘नीना, मुझे तुझ पर गर्व है।’’
-शबनम शर्मा
जरूरी है।
ReplyDeleteबेटियां बेटों से कम नहीं होतीं
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (05-12-2016) को "फकीर ही फकीर" (चर्चा अंक-2547) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
भावपूर्ण रचना
ReplyDeleteमर्मस्पर्शी कथा ! शाबाश नीना !
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