ये गलियाँ हैं
उस बचपन की जहाँ
मन अक्सर ठहर जाता है
जहाँ कड़ी धूप में भी
छाया होती थी स्नेह की
और बारिश की बूंदों में
खिलखिलाहटें लबों पर मचलती थीं
...
मेरी आदत में
शामिल था पापा का साथ
वो भी शाम को
जब आफिस से लौटते तो
कुछ पल बचाकर लाते थे
जेब में मुस्कराहटों के
कभी ले जाते घुमाने
कभी खेलते
मेरी पसंद का कोई खेल
जिसमें तय होती थी जीत मेरी
हार के पलों का
उदास चेहरा उन्हें मायूस कर जाता था
-सीमा सदा
Kya baaat hai...... Achchha lga khud ko yahan pakar......
ReplyDeleteAabhar aapka
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (30-07-2016) को "ख़ुशी से झूमो-गाओ" (चर्चा अंक-2419) पर भी होगी।
ReplyDelete--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'