Saturday, February 27, 2016

खनकती चूड़ियाँ....अवधेश कुमार झा


















चूड़ियाँ जब बजती हैं
बहुत ही भली लगतीं हैं

माँ की चूड़ियाँ बजती हैं 
सुबह-सुबह नींद से जगाने के लिये

माँ की चूड़ियाँ बजती हैं
एक-एक कौर बना कर मुझे खिलाने के लिये

माँ-की चूड़ियाँ बजती हैं
थपकी दे कर मुझे सुलाने के लिये

माँ की चूड़ियाँ बजती हैं
आशीर्वाद और दुआयें देने के लिये..........

हे! ईश्वर सदा मेरी माँ की चूड़ियाँ
इसी तरह बजती रहें खनकती रहें

ये जब तक बजेंगी खनकेंगी
मेरे पापा का प्यार दुलार
मेरे सिर पर बना रहेगा......
वरना तो मैं -
कुछ भी नहीं कुछ भी नहीं














बहन की चूड़ियाँ बजती हैं
मेरी कमर पर प्यार भरा
धौल जमाने के लिये

बहन की चूड़ियाँ बजती हैं
मेरे माथे पर चंदन टीका लगाने के लिये

बहन की चूड़ियाँ बजती हैं
मेरी कलाई पर राखी बाँधने के लिये

बहन की चूड़ियाँ बजती हैं
लड़ने और झगड़ने के लिये

हे! ईश्वर सदा मेरी बहन की चूड़ियाँ
इसी तरह बजती रहें खनकती रहें

ये जब तक बजेंगी
साले बहनोई का रिश्ता रहेगा

और रहेगा भाई बहन का प्यार जन्मों तक..........











पत्नी की चूड़ियाँ बजती हैं
प्रतीक्षारत हाथों से दरवाज़ा खोलने के लिये

पत्नी की चूड़ियाँ बजती हैं
प्यार और मनुहार करने के लिये

पत्नी की चूड़ियाँ बजती हैं
हर दिन रसोई में
मेरी पसन्द के तरह-तरह के
पकवान बनाने के लिये

पत्नी की चूड़ियाँ बजती हैं
जब वह हो जाती है आलिंगनबद्ध
और सिमट जाती है मेरे बाहुपाश में

हे ईश्वर मेरी पत्नी की चूड़ियाँ
इसी तरह बजती रहें खनकती रहें

जब तक ये चूड़ियाँ बजेंगी खनकेंगी
तब तक मैं हूँ मेरा अस्तित्व है

वरना, इनके बिना मैं कुछ भी नहीं कुछ भी नहीं











बेटी की चूड़ियाँ बजती हैं
पापा-पापा करके ससुराल जाते वक़्त
मेरी कौली भरते समय

बेटी की चूड़ियाँ बजती हैं
दौड़ती हुई आये और मेरे
सीने से लगते वक़्त

बेटी की चूड़ियाँ बजती हैं
सूनी आँखों में आँसू लिये
मायके से ससुराल जाते वक़्त.......

बेटी की चूड़ियाँ बजती हैं
रूमाल से अपनी आँख के आँसू
पापा से छिपा कर पोंछते वक़्त

हे! ईश्वर मेरी बेटी की चूड़ियाँ
इसी तरह बजती रहें खनकती रहें

जब तक ये बजेंगी खनकेंगी
मैं उससे दूर रह कर भी
जी सकूँगा......ख़ुश रह सकूँगा















बहू की चूड़ियाँ बजती हैं
मेरे घर को अपना बनाने के लिये

बहू की चूड़ियाँ बजती हैं
मेरे दामन को ख़ुशियों से
भरने के लिये

बहू की चूड़ियाँ बजती हैं
मेरा वंश आगे बढ़ाने के लिये

बहू की चूड़ियाँ बजती हैं
मेरे बेटे को ख़ुश रखने के लिये

हे! ईश्वर मेरी बहू की चूड़ियाँ
सदा इसी तरह बजती रहें खनकती रहें

जब तक ये बजेंगी खनकेंगी
मेरा बुढ़ापा सार्थक है वरना,
इनके बिना तो मेरा जीना ही

निष्क्रिय है निष्काम है!














-अवधेश कुमार झा
1986 में अवतरित 
श्री अवधेश कुमार जी झा
की ये लम्बी कविता
मैं एक ई- पत्रिका में पढ़ी

अच्छी लगी सो यहाँ सहेज ली
ई- पत्रिका का लिंक यहाँ है
awdheshkumar.jha@gmail.com


Friday, February 26, 2016

मुझे पुकार लो कभी तुम मुस्कुरा के....सुहानता "शिकन"


मुझे पुकार लो कभी तुम मुस्कुरा के,
झुकी-झुकी सी नज़र से शरमा के।

खिले हुए सूरत-ए-कँवल को,
दिन बहुत हो चुके,
हँसे हुए लब़-ए-ग़ज़ल को,
दिन बहुत हो चुके,
वही अदा का दीदार दो फिर जुल्फ़ उठाके॥1॥

गुज़र ना जाए दिन हँसी के,
फिर सबा बन के,
कभी मिलो तो हम से आ के,
नयी सुबह बन के,
छलक उठेंगे दिल के अरमां सिसकिया के॥2॥

सिले हुए लबों से मैं क्या,
इक़रार करूँ,
सुलगते जज़्बा लेके कब तक,
इंतज़ार करूँ,
ज़रा सा छू लो आ के दिल को तरस खा के॥3॥

नज़ारों में भी इन बहारों की,
एक वीरानी है,
ज़रा बढ़ाओ भी ये क़दम कि,
पास आनी है,
करो ना देर, क्या मिलेगा दिल जला के॥4॥

- सुहानता "शिकन"

Wednesday, February 24, 2016

हम सोचते हैं.....महेश रौतेला

यह शहर..... 
आदमी के साथ
जीता और मरता है,

दादी कहती है 
उसके ज़माने में
ऐसा-ऐसा होता था,

माँ कहती है
उसके समय में नदी 
यहाँ तक बहती थी,

लोग कहते हैं
उन्होंने घना जंगल देखा था,
ठेकेदार बोलता है
उसने अनगिनत अवैध 
कटान किया है,

बड़े सोचते हैं
उनके समय पढ़ाई अच्छी होती थी,
किसान कहता है
पहले बारिश समय से बरसती थी,

हम सोचते हैं
तब मधुर संगीत बजता था
प्यार दिखाई देता था,
और आदमी मुर्दा ही नहीं
क्रांतिकारी भी होता है।









-महेश रौतेला

Saturday, February 20, 2016

कुछ नयी पुरानी क्षणिकायें,,, मंजू मिश्रा


चुटकी भर धूप 
मुट्ठी भर सपने 
थोड़ी सी ख़ुशी 
दो चार अपने 
बस बीज देंगे 
जीवन की धरती 
फिर उगेंगी 
मुस्काने ही मुस्काने 
हमारे आँगन में 
तुम भी आना 
मिल के हँसेंगे 


जीने का क़र्ज़ 
उधड़ते हुये 
रिश्तों को ढांप-ढूंप 
दुनिया की नज़रों से बचाकर 
कब तक 
रफू करे कोई …..


जीना 
अगर तरीके से हो
एक सलीके से हो , 
तो ठीक !
वरना कब तक 
जीने का क़र्ज़ 
अदा करे कोई …..


सन्नाटे का जादू
चाँद पहरे पर है 
और चांदनी … मुस्तैद 
यादें भी 
यहाँ वहाँ लटकी हुयी 
दिल के दरख़्त पे,
मानों.. किसी केइंतज़ार में 
मगर सब गुपचुप 
जैसे डर हो कि
जरा सी आहट से 
कहीं रात का 
सन्नाटे का जादू 
टूट न जाये


उजाले की पैठ 
देशों की सीमायें 
नहीं देखती 
जाति या धर्म भी 
नहीं देखती 
वो तो बस 
अँधेरा देखती है 
और हर घर को 
रोशन करती है 
अपना धर्म समझ कर !!


कुछ तो लोग कहेंगे
कुछ तो लोग कहेंगे ही ….
कहने दो उन्हें 
जो कुछ कहते हैं
तुम उनसे…
हजार गुना बेहतर हो
जो दूसरों के कन्धों को
सीढ़ी बनाकर
ऊपर चढ़ते हैं
और फिर
सीना तान कर
खुद को पर्वत समझते हैं


जीवन में 
जाने कितने प्रश्नचिन्ह
जिन्हें  हम 
या तो जान कर 
या अनजाने में 
बस 
यूँ ही छोड़ देते हैं
और पूरी ज़िंदगी 
उन के इर्द गिर्द जीते हैं….
...............


*मंजू मिश्रा*



Tuesday, February 16, 2016

नयी-नयी पोशाक बदलकर, मौसम आते-जाते हैं,

नयी-नयी पोशाक बदलकर, मौसम आते-जाते हैं,
फूल कहॉ जाते हैं जब भी जाते हैं लौट आते हैं।

शायद कुछ दिन और लगेंगे, ज़ख़्मे-दिल के भरने में,
जो अक्सर याद आते थे वो कभी-कभी याद आते हैं।

चलती-फिरती धूप-छॉव से, चहरा बाद में बनता है,
पहले-पहले सभी ख़यालों से तस्वीर बनाते हैं।

आंखों देखी कहने वाले, पहले भी कम-कम ही थे,
अब तो सब ही सुनी-सुनाई बातों को दोहराते हैं ।

निदा फाजली
1938-2016

इस धरती पर आकर सबका, अपना कुछ खो जाता है,
कुछ रोते हैं, कुछ इस ग़म से अपनी ग़ज़ल सजाते हैं।

Monday, February 15, 2016

टूटना शुभ होता है कांच का .... सदा


हर सवाल का जवाब ढूंढना या देना जाने क्यों, 
कभी-कभी ऐन वक्त पर मुश्किल हो जाता है ।

गिरकर उठना फिर संभल जाना संभव होता है, 
नजरों में गिरकर उठ पाना मुश्किल हो जाता है ।

लड़ लेता है इंसान हर लड़ाई गैरों से हर तरह, 
अपनों से लड़कर जीतना मुश्किल हो जाता है ।

टूटना शुभ होता है कांच का कहते हैं बला टली, 
टुकड़ा चुभ जाए कोई जब मुश्किल हो जाता है ।

कोई हमसफर हो साथ तो रास्ता कट जाता है, 
जाने कब, तन्हा सफर 'सदा' मुश्किल हो जाता है ।

शनिवार, 31 अक्तूबर 2009

Friday, February 12, 2016

और फिर नारी ने कहा.....इन्द्रा












और फिर नारी ने कहा
हे नर !
मैं तो हमेशा से वहीँ हूँ 

जहाँ मुझे होना था 
न तुम्हारे आगे न पीछे 
न ऊपर न नीचे 
बस बराबरी में

मुझे तो कभी भी महान बनने की चाहत न थी 
तुम ही हमेशा  ऊंचा बनने की होड़ में लगे रहे 
महान बनने के रास्ते तो और भी थे
उन पर चल तुम ईश्वर बन सकते थे 
पर तुमने यह क्या किया ?   

मुझे नीचा  दिखाने की कोशिश में 
खुद से कमजोर जताने  की ख्वाहिश में 
खुद को महान दिखने  की चाहत में 
मुझ पर बलात्कार और जुर्म कर 
खुद को ही नीचा गिरा कर 
मुझ स्वतः ही  उपर  उठा दिया 

- इन्द्रा
मूल रचना


Tuesday, February 9, 2016

निदा फाजली नहीं रहे..

                                            
12 अक्टूबर, 1938 -  8 फरवरी, 2016
अपनी मर्जी से कहां अपने सफर के हम हैं,
रुख हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं

                    भारत के मशहूर हिंदी – उर्दू कवि मुक्तिदा हसन ‘निदा फाजली’ नहीं रहे. 12 अक्टूबर, 1938 को जन्मे ये कविराज  8 फरवरी, 2016 को खुदा को प्यारे हो गये. वे 77 साल के थे. हमने उनकी अनेक गज़ल जगजीत सिंघ द्वारा सुनी है, आज जगजीत जी की जन्मतिथि अब निदा जी की पुण्यतिथि बन गई है.

                              कश्मीरी परिवार के निदा जी दिल्ली में जन्मे और ग्वालियर में आपने शिक्षा पाई थी. उनके पिता जी भी उर्दू के कवि थे. 1947 में देश के बटवारे के दौरान पिताजी पाकिस्तान गये थे, लेकिन निदा जी भारत में रहे थे. युवा निदा ने एक बार मंदिर के पास से गुजरते हुए सूरदास का राधा के बारे में लिखा पद सुना था, जिसमे श्री कृष्ण से जुदा होने का राधा जी के दुःख का वर्णन था, उससे प्रभावित हो कर वे कवि बने थे, ऐसा निदा फाजली कहते थे. मीरा और कबीर से प्रभावित निदा गाज्ली ने अपनी कविता का दायरा टी. एस. इलियट, गोगोल, एंटोन चेखोव और टाकासाकी तक विस्तुत किया था.

                      काम की खोज में निदा जी 1964 में बम्बई आये थे. शुरूआती दौर में उन्हों ने हिंदी साप्ताहिक धर्मयुग और ब्लिट्स में लिखा था. उनसे हिंदी फिल्मों के निर्माता-निर्देशक-लेखक प्रभावित थे. उनको मुशायरा में बुलाया जाता था. उनकी गज़ल और अदायगी लोकप्रिय हुई. उसमे गज़ल, दोहा और नज़म का मिश्रण श्रोताओ को मिलता था. उन्हों ने कविता को सादगी बक्षी. उनकी प्रसिध्ध पंक्ति: ‘दुनिया जिसे कहते है, जादू का खिलौना है, मिल जाये तो मिटटी है, खो जाये तो सोना है’. आपको उनकी ‘आ अभी जा (सुर), तू इस तरहा से मेरी जिंदगी में सामिल है (आप तो ऐसे न थे) और होश वालों को खबर क्या बेखुदी क्या चीज है, इश्क कीजे और समजिये झिंदगी क्या चीज़ है (सरफ़रोश) याद होगी. उस गज़ल का एक बेहतरीन शेर है, ‘हम लबों से कह नहीं पाए, उनसे हाल-ए-दिल कभी; और वो समझे नहीं, ये ख़ामोशी क्या चीज़ है’.  ‘इस रात की सुबह नहीं,’ और ‘गुडिया’ में भी उनके गीत थे. कमाल अमरोही की ‘रज़िया सुलतान (1983) बनती थी और उनके गीतकार जाँ निसार अख्तर का निधन हुआ. तब निदा फाजली ने उस फिल्म के दो गाने लिखे थे.

                   निदा फाजली को भारत का बटवारा पसंद नहीं था. कोमी और राजकीय दंगो के सामने वे आवाज़ उठाते थे. उसका नतीजा ये था की 1992 के दंगो में उन्हें अपने आप को बचने किसी दोस्त के घर रहना पड़ा था. उनके ‘राष्ट्रिय एकता’ का पुरस्कार मिला था. उन्होंने उर्दू, हिंदी और गुजराती में 24 पुस्तकें लिखी थी. उनकी कुछ कविता बच्चे स्कूल में पढते हैं. उनके आत्मकथात्मक उपन्यास ‘दीवारों के बिच’ के लिये मध्य प्रदेश सरकार ने निदा फाजली को ‘मीर तकी मीर’ एवॉर्ड दिया था. उनके प्रसिद्द लेखन कार्य है – मोर नाच, हम कदम और सफर में धूप तो होगी..

       निदा फाजली को साहित्य अकादमी का एवोर्ड 1998 में, श्रेष्ठ गीतकार का स्टार स्क्रीन एवोर्ड ‘सुर’ के लिये और 2013 में पद्मश्री का इल्काब मिला था.

             निदा जी को हमने सूरत के गाँधी स्मृति भवन में तीन-चार बार सुना है.. मेरा उनका लिखा प्रिय शेर है, ‘घर से मस्जिद हो बहुत दूर, तो चलो यूँ ही सही, किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाये.’ कवि अपनी कविताओं से अमर होते है, निदा फाजली भी अमर है.




संकलन


Monday, February 8, 2016

उड़ान....इन्द्रा
















हमें ही  जीने दो
मत थोपो अपने सपने
हमें  ही बुनने दो
अच्छे और बुरे का
बस फर्क तुम बता दो
कैसे गगन में उड़ना
इतना बस सिखा दो
लकीर के फ़क़ीर
बनना नहीं हमें
नए रस्ते अपने लिए
तलाशेंगे  खुद ही हम
तुम तो बस हमें
उड़ने को छोड़ दो
या साथ हो लो हमारे
नए नए सपने बुनो
सपने बनाने की
कोई उम्र होती नहीं
छोड रूढ़ीवाद  और
पुरानी परम्पराएँ
सब नया  नहीं है बुरा
विश्वास करके देखो
मेरा हाथ पकड़ कर
फिर से उड़ कर देखो
जब सब का साथ हो
कठनाई डर  के भागेगी
मंज़िल सच हमें
खुद ब खुद तलाशेगी
-इन्द्रा

मूल रचना

Friday, February 5, 2016

अजब हालात पैदा हो गए हैं दौरे-हाज़िर में...-कुँवर कुसुमेश


दिखाऊँगा किसी दिन मैं भी जा करके मदीने में। 
हज़ारों दर्द मैंने दफ़्न कर रक्खे हैं सीने में।

चलो देखें ज़रा चलकर सफ़ीने को हुआ क्या है,
किसी ने छेद कर रक्खा है क्या मेरे सफीने में।

मुझे बेकार लगता है हमेशा मैकदा जाना,
मज़ा तो यार आता है तेरी आँखों से पीने में।

गरीबों के लिए दो वक़्त की रोटी ही काफी है,
सुकूने-क़ल्ब दिखता है गरीबों के पसीने में।

तुम्हें देखेगा बेपर्दा कभी कोई तो कह देगा ,
बला का हुस्न है यारो क़सम से इस नगीने में।

अजब हालात पैदा हो गए हैं दौरे-हाज़िर में,
"कुँवर" अच्छा नहीं लगता है अब तो यार जीने में।

-कुँवर कुसुमेश 
---------------
सुकूने-क़ल्ब = दिल का सुकून
दौरे-हाज़िर = वर्तमान परिस्थिति

Wednesday, February 3, 2016

नासमझ दिल.......इन्द्रा











कितने सपने देखें
और कितना मन को मारें
दिल को कौन बताये
लाख जतन करो सब कुछ पालूं
फिर भी कुछ छूट ही जाये
दिल को कौन बताये
आधा छोड़ पूरे भाग न मनवा
जो है वो भी छिन ना जाये
दिल को कौन बताये
अपनी सीमा खुद पहचानो
जितनी चादर पाओं पसारो
दिल को कौन बताये
सब की अपनी मजबूरी है
कब तक कोई साथ निभाए
जब तक का है साथ किसीका
हंस कर ले बतियाये
दिल को कौन बताये

-इन्द्रा

मूल रचना


Tuesday, February 2, 2016

बापू – यादों में नहीं सिर्फ जेबों में रह गए हैं....मंजू दीदी












बापू 
अच्छा ही हुआ 
जो आप नहीं हैं आज 
अगर होते तो 
रो रहे होते खून के आंसू 
गणतंत्र को गनतंत्र बना देने वाले 
क्या रत्ती भर भी समझ पाये हैं 
आपके स्वराज का अर्थ ...
नहीं वो तो बस नाम को 
चढ़ा देते हैं चार फूल 
राजघाट पर और 
कर लेते हैं फर्ज पूरा 
दुनिया को दिखाने को 
कि बापू आज भी हमारी यादों में हैं 
जबकि असलियत तो ये है कि 
आप उनकी यादों में नहीं 
सिर्फ जेबों में रह गए हैं 
नोटों पर छपी रंगीन तस्वीर बन कर  
-मंजू मिश्रा
( "गणतंत्र / गनतंत्र" शब्द मित्र कवि कमलेश शर्मा जी की पोस्ट पर पढ़ा था, इस अद्बभुत खयाल का श्रेय उनको ही जाता है, उनको धन्यवाद सहित उनकी पोस्ट  से साभार )

 http://wp.me/pMKBt-Bp



Monday, February 1, 2016

ठिठुरी कविता.....सविता अग्रवाल ’सवि’








सर्दी के मौसम में, ठिठुरी कविता
रज़ाई में दुबकी, सिकुड़ी कविता
मुँह बाहर निकालती है और
फिर दुबक जाती है
यही क्रम था चल रहा
महीना बीत गया ...

आज मैंने कविता को उठाया
माथा चूमा, सहलाया,
रज़ाई से निकाला
गर्म रखने का आश्वासन दे,
धीरे-धीरे उसके हाथों को सहलाया
मौजे, दस्ताने पहना कर
आराम दिलाया 
उसमें कुछ उर्जा जगाई
जिससे वह अपने को सँभाल पाई
उसे उठाया और धूप में बिठाया 
मूँगफली, रेवड़ी का आनंद दिलाया

कविता सिहराई,
मुझे देख कर मुस्कुराई
मैंने भी झट क़लम उठाई 
काग़ज़ पर रख उसको
उसकी अहमियत समझाई
कपड़ों में लदी, भावों से सजी
कविता ......
अपने से ही शरमाई और गुदगुदाई।

-सविता अग्रवाल ’सवि’
savita51@yahoo.com