Wednesday, November 25, 2015

है ये तो सुनी हुई आवाज़.......... फिराक गोरखपुरी

1896-1982
तमाम कैफ़ ख़मोशी तमाम नग़्म-ए-साज़ 
नवा-ए-राज़ है ऐ दोस्त या तेरी आवाज़ 

मेरी ग़ज़ल में मिलेगा तुझे वो आलमे-राज़ 
जहां हैं एक अज़ल से हक़ीक़त और मजाज़ 

वो ऐन महशरे-नज्‍़जारा हो कि ख़लवते-राज़
कहीं भी बन्द- नहीं है निगाहे-शाहिदबाज़

हवाएं नींद के खेतों से जैसे आती हों 
यहां से दूर नहीं है बहुत वो मक़तले-नाज़ 

ये जंग क्या है लहू थूकता है नज़्मे-कुहन 
शिगू़फ़े और खिलायेगा वक्‍़ते शोबदाबाज़

मशीअ़तों को बदलते हैं ज़ोरे-बाजू़ से 
'हरीफ़े-मतलबे-मुश्किल नहीं फ़सूने-नेयाज़

इशारे हैं ये बशर की उलूहियत की तरफ़ 
लवें-सीं दे उठी अकसर मेरी जबीने-नेयाज़

भरम तो क़ुर्बते-जानाँ का रह गया क़ाइम 
ले आड़े आ ही गया चर्खे़-तफ़र्का़-परदाज़

निगाहे-चश्मे-सियह कर रहा है शरहे-गुनाह 
न छेड़ ऐसे में बहसे-जवाज़ो-गै़रे-जवाज़

ये मौजे-नकहते-जाँ-बख्‍़श यूँ ही उठती है 
बहारे-गेसु-ए-शबरंग तेरी उम्र दराज़ 

ये है मेरी नयी आवाज़ जिसको सुनके हरेक 
ये बोल उठे कि है ये तो सुनी हुई आवाज़ 

हरीफ़े-जश्ने-चिरागाँ है नग़्म-ए-ग़मे-दोस्त 
कि थरथराये हुए देख उठे वो शोला-ए-साज़ 

‍फ़ि‍राक़ मंजि़ले-जानाँ वो दे रही है झलक 
बढ़ो कि आ ही गया वो मुक़ामे-दूरो-दराज़

-फिराक गोरखपुरी
(रघुपति सहाय)
1896-1982

ख़लवते-राज़ः गुप्त एकांत, निगाहे-शाहिदबाज़ः सौन्दर्य के प्रति आसक्त आँखें, 
शोबदाबाज़ः बाज़ीगर समय, फ़सूने-नेयाज़ः जादुई अदा, 
चर्खे़-तफ़र्का़-परदाज़ः वैमनस्य पैदा करने वाला आकाश। 
बहसे-जवाज़ो-गै़रे-जवाज़ःउचित-अनुचित का तर्क.


6 comments:

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 27-11-2015 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2172 में दिया जाएगा
    धन्यवाद

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  2. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ब्लॉग बुलेटिन - गुरु पर्व और देव दीपावली की हार्दिक बधाई। में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

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  3. . फिराक गोरखपुरी जी की सार्थक गजल प्रस्तुति हेतु आभार

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  4. हार्दिक आभार इस ग़ज़ल के लिए

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  5. हार्दिक आभार इस ग़ज़ल के लिए

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