Tuesday, September 30, 2014

कुएं की तलाश में.............ललिता परमार



 













पूछ रहा था पता
भटक रहा था
मेंढक कुएं की
तलाश में
यहां से वहां
नदी, तालाबों में
सुरक्षित नहीं था
वह कुआं जो आज
किंवदंती वन
गुम हो गया
दे दी अपनी
जगह नलकूपों को
कुआं जहां पहले
राहगीरों की प्यास
के लिये राह में
खड़े रहते थे,
इन्तजार में
किसी प्यासे के लिये
आज उसी कुएं की
तलाश में भटक रहा है
मेंढ़क
बड़े फख्र से कहलाने के
लिए
कुएं का मेंढ़क

-ललिता परमार
....पत्रिका से

Monday, September 29, 2014

अस्तित्व.............अनुप्रिया



 


















तुम उड़ती हो
उड़ जाता है मेरा
मन आकाश की
खुली बाहों में
बेफिक्री से

तुम टूटती हो
टूट जाता है
अस्तित्व
भड़भड़ाकर

तुम प्रेम करती हो
भर जाती हूँ मैं
गमकते फूलों
की क्यारियों से

तुम बनाती हो
अपनी पहचान
लगता है
मैं फिर से जानी
जा रही हूँ

तुम लिखती हो
कविताएं
लगता है
सुलग उठे हैं
मेरे शब्द तुम्हारी
कलम की आंच में


-अनुप्रिया
..... नायिका से

Sunday, September 28, 2014

अहिल्या को नहीं भुगतना पड़ेगा..........यशोदा



















विडम्बना
यही है की
स्वतंत्र भारत में
नारी का
बाजारीकरण किया जा रहा है,

प्रसाधन की गुलामी,
कामुक समप्रेषण
और विज्ञापनों के जरिये
उसका..........
व्यावसायिक उपयोग
किया जा रहा है.

कभी अंग भंगिमाओं से,
कभी स्पर्श से,
कभी योवन से तो
कभी सहवास से
कितने भयंकर परिणाम
विकृतियों के रूप में
सामने आए हैं,

यही नही
अनाचार के बाद
जिन्दा जला देने
जैसी निर्ममता से
किसी की रूह
तक नहीं कांपती

क्यों....क्यों..
आज भी
पुरुषों के लिये
खुले दरवाजे

और....और..
स्त्रियों के लिये
उफ.......
कोई रोशनदान तक नहीं?

मैं कहती हूँ....
स्त्री नारी होती नहीं
बनाई जाती है.

हम सबको
अब यह संकल्प लेना होगा
कि अब और नहीं..
कतई नहीं,
अब किसी इन्द्र के
पाप का दण्ड
अब किसी भी
अहिल्या को
नहीं भुगतना पड़ेगा

मन की उपज
-यशोदा

Saturday, September 27, 2014

जो मेहँदी से कट गयी.........सचिन अग्रवाल


मेहनतकशों की सख्त हथेली से कट गयी
दीवार जो कुंए की थी रस्सी से कट गयी 

क्या ज़ायका है खून का अपने को क्या पता
अपनी तो सूखी रोटी से चटनी से कट गयी 

अंदाजा है तुम्हे कि किसी का थी वो नसीब
हाथों की एक लक़ीर जो मेहँदी से कट गयी

तन्हाई,जख्म माज़ी के और कोई धुंधली याद
एक सर्द रात गीली अंगीठी से कट गयी

मर्ज़ी से अपनी मरने का मौका भी कब मिला
और ज़िन्दगी भी औरों की मर्ज़ी से कट गयी

( नए मरासिम में प्रकाशित)

-सचिन अग्रवाल

Friday, September 26, 2014

तेरे बगैर.............निकेत मलिक



उम्रेदराज़ काट रहा हूँ तेरे बगैर
गुलों से खार छांट रहा हूँ तेरे बगैर

हंसने को जी करे है न, रोने को जी करे
मुर्दा शबाब काट रहा हूँ तेरे बगैर

क्या जुर्म किया था जो, हिज़्र की सजा मिली
नाकरदा गुनाह को छांट रहा हूँ तेरे बगैर

ज़ख़्मों को सी लिया है, होंठों को सी लिया,
फिर भी खुद को डांट रहा हूँ तेरे बगैर

चंद लम्हें फुरसत के अब नसीब हुए हैं
गैरों के बीच बांट रहा हूँ तेरे बगैर

-निकेत मलिक
.....परिवार, पत्रिका

Thursday, September 25, 2014

कैसा-कैसा दर्द रिसता है..........यशोदा

 











विचित्र है..
और सत्य भी तो है,
कि हजारों वर्ष के
इतिहास नें कभी भी,
किसी ने भी
नारी की आर्थिक स्थिति की
ओर ध्यान ही नहीं दिया

और .......
इसी के चलते
देश की बेटियां,
बहनें और माताओं को
इसी अर्थव्यवस्था
के चलते समाज में
हीन भावनाओं और
दासत्व से ग्रषित ही रही.

दासप्रथा के मूल में
नारी के प्रति
असहिष्णुता ही है
और यह
सामाजिक सोच है
जो स्त्रियों और पुरुषों को
अलग अलग नियमों के
खाकों में जकड़ देती है
और पुरुष कभी
देख और सुन ही नहीं पाता

और..........
वहीं स्त्री भीतर
कितना और
कैसा-कैसा दर्द रिसता है,
इसकी भावनात्मक वेदना
तो दूर मानवता के नाते
गहरी संवेदना भी
नहीं उपजती
जो की.....
उपजनी चाहिये

मन की उपज
-यशोदा

Wednesday, September 24, 2014

तुमने चख लिया हर रंग का लहू.......अजन्ता देव














तुम्हारी जिव्हा
ठांव-कुठांव टपकाती है लार
इसे काबू में रखना तुम्हारे वश में कहां
तुमने चख लिया हर रंग का लहू


परन्तु एक बार आओ
मेरी राम रसोई में
अग्नि केवल तुम्हारे जठर में
नहीं, मेरे चूल्हे में भी है
ये पृथ्वी स्वयं हांडी बनकर
खदबदा रही है


केवल द्रौपदियों को ही
मिलती है यह हांडी
पांच पतियों के
परम सखा से

- अजन्ता देव


..... नायिका से... 

Tuesday, September 23, 2014

आज याद आए कौन...........जावेद अख़्तर


दर्द अपनाता है पराए कौन
कौन सुनता है सुनाए कौन


 कौन दोहराए वो पुरानी बात
ग़म अभी सोया है जगाए कौन

वो जो अपने हैं क्या वो अपने हैं
कौन दुख झेले आज़माए कौन

अब सुकूं है तो भूलने में है
लेकिन उस शख़्स को भुलाए कौन

आज फिर दिल है कुछ उदास-उदास
देखिए आज आज याद आए कौन

-जावेद अख़्तर
... मधुरिमा से..

Monday, September 22, 2014

ये इक चराग कई आंधियों पे भारी है...........जाहिद हसन वसीम (वसीम बरेलवी)

 ये है तो सब के लिये हो ये ज़िद है हमारी
इस एक बात पे दुनिया से जंग ज़ारी है

उड़ान वालों उड़ानों पे वक्त भारी है
परों की अब नहीं हौसलों की बारी है

मैं कतरा होके भी तूफ़ां से जंग लेता हूं
मुझे बचाना समुंदर की जिम्मेदारी है

इसा बीच ज़लते हैं सहरा-ए-आरजू में च़राग
ये तिश्नगी तो मुझे जिंदगी से प्यारी है

कोई बताए ये उस के ग़ुरूर-ए-बेजा को
वो जंग लड़ी ही नहीं जो हारी है

हर एक सांस पे पहरा है बे-य़कीनी का
ये ज़िंदगी तो नहीं मौत की सवारी है

दुआ करो कि सलामत रहे मेरी हिम्मत
ये इक चराग कई आंधियों पे भारी है

-जाहिद हसन वसीम (वसीम बरेलवी)
............
सहरा-ए-आरजू : इच्छाओं का मरुस्थल, 
तिश्नगी : ख़्वाहिश, गुरूर-ए-बेजा : घमंड

जाहिद हसन वसीम (वसीन बरेलवी)
जन्म : 18 फरवरी, 1940, बरेली, रुहेलखण्ड,उत्तरप्रदेश.

Sunday, September 21, 2014

ख़्वाब में कल डाँट कर गए...........आलोक श्रीवास्तव



अब तो ख़ुशी के नाम पे कुछ भी नहीं रहा
आसूदगी के नाम पे कुछ भी नहीं रहा

सब लोग जी रहे हैं मशीनों के दौर में
अब आदमी के नाम पे कुछ भी नहीं रहा

आई थी बाढ़ गाँव में, क्या-क्या न ले गई
अब तो किसी के नाम पे कुछ भी नहीं रहा

घर के बुज़ुर्ग लोगों की आँखें ही बुझ गईं
अब रौशनी के नाम पे कुछ भी नहीं रहा

आए थे मीर ख़्वाब में कल डाँट कर गए
‘क्या शायरी के नाम पे कुछ भी नहीं रहा?’

- आलोक श्रीवास्तव

प्राप्ति स्रोतः काव्यांचल

Saturday, September 20, 2014

पेड़............. सुधीर कुमार सोनी





 











मैंने
कागज पर लकीरें खिचीं
डाल बनाई
पत्ते बनाए
अब कागज पर
चित्र लिखित सा पेड़ खड़ा है

पेड़ ने कहा
यह मैं हूं
मुझ पर काले अक्षरों की दुनिया रचकर
किसे बदलना चाहते हो

मैंने
रंगों से कपड़ों में
कुछ लकीरें खींचीं
डाल बनाई
पत्ते बनाए
अब
कपड़े पर छपा पेड़ है
पेड़ ने कहा
यह मैं हूं
मुझे नंगा कर
किसे ढंकना चाहते हो

यह जो तुम हो
पेड़ ने कहा
यह भी मैं हूं
सांसों पर रोक लगाकर
किसे जीवित रखना चाहते हो। 


-सुधीर कुमार सोनी

प्राप्ति स्रोतः काव्य संसार, वेब दुनिया

Friday, September 19, 2014

सपने भी टूटे तो क्या...............शाश्वत




  स्याही सूखी, कलम भी टूटी,
सपने भी टूटे तो क्या,
अभी शेष समंदर मन में,
आंसू भी सूखे तो क्या।

पत्ता-पत्ता डाली-डाली,
बरगद भी सूखा तो क्या,
जड़े शेष जमीं में बाकी,
गुलशन भी सूखा तो क्या,

स्याही सूखी, कलम भी टूटी,
सपने भी टूटे तो क्या,

अपने रूठे, सपने झूठे,
जग भी छूट गया तो क्या,
जन्मों का ये संग है अपना,
छूट गया इक जिस्म तो क्या

स्याही सूखी, कलम भी टूटी,
सपने भी टूटे तो क्या।

-शाश्वत

Thursday, September 18, 2014

नाम से जिसके मेरी पहचान होगी..........आलोक श्रीवास्तव




  ले गया दिल में दबाकर राज़ कोई,
पानियों पर लिख गया आवाज़ कोई.

बांधकर मेरे परों में मुश्किलों को,
हौसलों को दे गया परवाज़ कोई.

नाम से जिसके मेरी पहचान होगी,
मुझमें उस जैसा भी हो अंदाज़ कोई.

जिसका तारा था वो आंखें सो गई हैं,
अब कहां करता है मुझपे नाज़ कोई.

 रोज़ उसको ख़ुद के अंदर खोजना है,
रोज़ आना दिल से इक आवाज़ कोई.

-आलोक श्रीवास्तव 
प्राप्ति स्रोत : वेब दुनिया

Wednesday, September 17, 2014

नयी पीढ़ी का गीत......दुष्यन्त कुमार



  
जो मरुस्थल आज अश्रु भिंगो रहे हैं
भावना के बीज जिस पर बो रहे हैं
सिर्फ मृग-छलना नहीं वह चमचमाती रेत!

क्या हुआ जो युग हमारे आगमन पर मौन?
सूर्य की पहली किरण पहचानता है कौन?
अर्थ कल लेंगे हमारे आगमन का संकेत।

तुम न मानो शब्द कोई है नामुमकिन
कल उगेंगे चांद-तारे, कल उगेगा दिन,
कल फ़सल देंगे समय को, यही "बंजर खेत"।

-दुष्यन्त कुमार
....मधुरिमा से

Tuesday, September 16, 2014

चांद मेरा वक़ील हो जैसे....नवनीत शर्मा

 

उसकी आंखों में झील हो जैसे
प्‍यास ? मुद्दत क़लील हो जैसे

ढूंढना उसको…कोई अंत नहीं
एक सहरा तवील हो जैसे

उसको देखा तो हो गये पत्‍थर
पांव रखना भी मील हो जैसे

सांस लेने में जान जाती है
कोई इतना अलील हो जैसे

फ़ैसला उसके हक़ में होना था
उसका चेहरा दलील हो जैसे

धूप की सब अदालतों के लिए
चांद मेरा वक़ील हो जैसे

उतर आया सलीब से लेकिन
अब तो सब दिल ही कील हो जैसे

ख़ूब दौड़ा कहीं नहीं पहुंचा
दिल-हिरन ही में ढील हो जैसे

उस तक आवाज़ जा नहीं पाती
दरमियां इक फ़सील हो जैसे

डर गया मुश्किलों से इतना मैं
छोटी चिड़िया भी चील हो जैसे

ख़ाब के खो चुके जज़ीरों की
याद ही संगे-मील हो जैसे

-नवनीत शर्मा 09418040160

 http://wp.me/p2hxFs-1Oq

Saturday, September 13, 2014

हिन्दी दिवस की शुभकामनाएँ...........यशोदा

जानते हैं पर पुकारते नहीं












हमारी भूलने की
आदत बरकरार है
कोई हमारा भला करे तो
जल्दी भूल जाते हैं
और तब देर हो जाती है
भूलने में....
जब हमारे साथ कोई
खराब व्यवहार करता है

ठीक उसी तरह
हम भूल गए हैं
उन शब्दों को
जिन्हें हम
बचपन में माँ से सीखा था
वे शब्द हैं....
शाला, विद्यालय,
शिक्षक, गुरूजी,
बस्ता, जूता,
मां-पिताजी, कुर्सी, अखबार,
छुट्टी, घण्टी, खोज,
प्रेरणा, प्रयोग, स्याही, दावात,
कलम, स्लेट, खड़िया
होनहार, बुद्धिमान,बेवकूफ,
और भी अन्य शब्द हैं
जो उपयोग में आते हैं
सिरदर्द, बुखार, मंजन, नहानी,
चौका, रसोई, बरतन,
आलमारी, बिजली, मोमबत्ती
लिखती जाऊँगी तो
जगह ही नहीं बचेगी

आज हिन्दी दिवस है
और उसी हिन्दी को
जिसमें हमने अपना बचपन
जिया है..उसे ही भूल गए हैं
क्योंकि......
हमें भूलने की
आदत जो है...
और उस आदत से
हमें छुटकारा पाना है
-हिन्दी दिवस की शुभकामनाएँ

मन की उपज
-यशोदा

गंगा की हिफाजत मजहब – ए – हिंद है.......................आलोक तिवारी






विष्णु के पा से ये चरम--सफ़ा हुआ
तीनों जहां की शान में सिवा ईजा
फ़ा हुआ ।

गंगा तेरी जबीं पे लिख्खा पयाम
--गम
आवाज
--दिलखराश पे है चरम--नम ।

गंगा की शोख तबियत से रश्क
--अदम हुआ
तेरे लव
--जू पे क्यू मजलिस--मातम हुआ ।

सुपुर्द
--खाक तुझसे जन्नत का सबब है
गंगा की निगेहबानी में मरना भी गजब है ।

अश्के
-हिमाला को आबे-हयात कहा
शक्ल
--गंगा में खां कायनात कहा ।

इसरार
--भागीरथ तू जहां में नुमूद हुई
तेरे मुकद्दम आब की दुनिया मुरीद हुई ।

काशी में शिव का मस्कन आबेकश्क है
सदके में शंकर के ये गंगा के अश्क है ।

दमें आखिर गंगेय का लबेतर किया
मां की ममता का तुने यू इजहार किया ।

मस्लत
--अदम ने तुझे तारतार किया
इस इज्ने
-आम ने दिल जार-जार किया ।

संग
--दिवार से तुझे महबूस कर रहे
बाखुदा लुटने का काम तेरे मानूस कर रहे ।

रुस्वा किया तुमको तेरे मेहरबान ने
सीना
-फिगार किया तेरे मेजबान ने ।

तपीरा
--गरल को तूने हिमानी किया
शिव के व्योमकेश को पानीपानी किया

आबे फिरदौस तु तेरी हस्ती अजीमतर
मल्लिका-
-जहां तू तेरे नक्श करीमतर ।

गुनाह-ए-बशर को गंगा ने सवाब किया
हमने मुकद्दम आब को जहराब किया ।

गंगा की हिफाजत मजहब
--हिंद है
तेरा अंदाज
--मोहब्बत मां के मानिंद है ।

मुर्दः रवा किया शौकआबे
-हयात में
अक्से फना क्यूं दिख रहा परतवे
-हयात में ।

-आलोक तिवारी


पुनः प्रकाशन 



Friday, September 12, 2014

ये शब्द मेरी धरोहर हैं .........यशवन्त यश©










शब्द !
जो बिखरे रहते हैं
कभी इधर
कभी उधर
धर कर रूप मनोहर
मन को भाते हैं
जीवन के
कई पलों को साथ लिये
कभी हँसाते हैं
कभी रुलाते हैं ....
इन शब्दों की
अनोखी दुनिया के
कई रंग
मन के कैनवास पर
छिटक कर
बिखर कर
आपस में
मिल कर
करते हैं
कुछ बातें
बाँटते हैं
सुख -दुख
अपने निश्चित
व्याकरण की देहरी के
कभी भीतर
कभी बाहर
वास्तविक से लगते
ये आभासी शब्द
मेरी धरोहर हैं
सदा के लिये।

~यशवन्त यश©

Thursday, September 11, 2014

मां की आँखें नम हो गई.....थानू निषाद "अकेला"

    










आंचल में छुपाते हुए
मां ने धीरे से कहा-
बेटी! डरो नहीं
अब तो मैं तुम्हारे पास
बैठी हूँ.


इतना सुनते ही, सहमी सी थोड़ी
दबी जुबान से बेटी ने कहा-
मां, यहां कैसे-कैसे लोग हैं ?
जो माँ को माँ, बेटी को बेटी
बहन को बहन
कहना भी भूल गए


मानवता को तार-तार कर
इंसान से हैवान बनते
ये कैसे आदमखोर लोग हैं
अब तो एक अकेली,
बाहर निकलने से भी
डर लगता है


इतना सुनते ही,
मां की आँखें नम हो गई.....


-थानू निषाद "अकेला"
टिकरापारा, फिंगेश्वर (छ.ग.)

Wednesday, September 10, 2014

फिर सब कुछ बहा ले जाएगी............आशुफ़्ता चंगेज़ी

 


बादबां खोलेगी और बंद-ए-क़बां ले जाएगी
रात फिर आएगी फिर सब कुछ बहा ले जाएगी

ख़्वाब जितने देखने हैं आज सारे दिन देख ले
क्या भरोसा कल कहां पागल हवा ले जाएगी

ये अंधेरे ग़नीमत कोई रस्ता ढूंढ़ लो
सुबह की पहली किरण आंखे उठा ले जाएगी

होश-मंदों से भरे हैं शहर और जंगल सभी
साथ किस-किस को भला काली घटा ले जाएगी

जागते मंजर, छतें, दालान, आंगन, खिड़कियां
अब के फेरे में हवा ये भी उड़ा ले जाएगी

एक इक करके सभी साथी पुराने पुराने खो गए
जो बचा है वो निगाह-ए-सुर्मा-सा ले जाएगी

जाते जाते देख लेना गर्दिश-ए-लैल-ओ-नहार
ज़िंदगी ली बांकपन लुत्फ़-ए ख़ता ले जाएगी

-आशुफ़्ता चंगेज़ी
जन्मः 1956 अलीगढ़, उत्तर प्रदेश
(1996 से गुमश़ुदा)
.................................................
बंद-ए-क़बां : कपड़े पर बंधी गाँठ,
निगाह-ए-सुर्मा-सा : काजल लगी आंखें,
गर्दिश-ए-लैल-ओ-नहार : दिन और रात,
बांकपन : आकर्षण, लुत्फ़-ए ख़ता : विलासिता
............रसरंग से

Tuesday, September 9, 2014

क्यूं हाथ लगी रुसवाई है..........देव वंश दुबे

 

  
कांटों में जो थोड़ी महक समाई है
फूलों ने ही दरियादिली दिखाई है

हो जाता गुलज़ार फलक पूरे दिल का
हंसती जब कोई कभी रोशनाई है

दुनिया से तो प्यार जताया है लेकिन
ना जाने क्यूं हाथ लगी रुसवाई है

सपनों को साकार बनाऊं फिर कैसे
राहों में पर्वत या फिर खाई है

न करता आंखों से चूमूं दरिया को
करता जो प्यासों की ही अगुआई है

-देव वंश दुबे
...........हेल्थ, पत्रिका से

Monday, September 8, 2014

हिलती हैं दीवारें...............डॉ. दीनदयाल दिल्लीवार
















रोज,
हर रोज ही
हिलती हैं
दीवारें
मेरे घर की
मारा जाता है
अनजानें ही
जब कोई-
आदमी
तो कांपता है
नक्शा
हिन्दुस्तान का

डॉ. दीनदयाल दिल्लीवार,
बालोद, जिला दुर्ग, छत्तीसगढ़
.........अवकाश, नवभारत

Sunday, September 7, 2014

क्यों हो गई पायल छोटी..............कविता वाचक्नवी

    



चलना सीखते ही
पहना जाती है, नानी
घुंघरुओं की पायल
रुनुन..झुनुन.....टुनुन...नुनुन
गूंजता है... दिन भर...
घर के भीतर,ठण्डे सलेटी फर्श पर
शीघ्रता से....
और शीघ्रता से

बढ़ने लगी-पायल बंधी गोलाइयां
छोटी हो गई-पायलें
और कसने लगी,
उतार
खूब दौड़ लगाई
पत्थर बिछी गली की
तितलियों के पर पकड़ने
बादलों के श्वेत पद छूने
टिमटिमाते तारे
झोली में बटोर लेने को.

इस दौड़ में छूट गई
पत्थर वाली गली
काली सड़कों तक आते-आते
न रंगीली तितलियां थी
न बादलों का श्वेत पग,
सब ओर एक-सी
काली कोलतारी सड़कें
एक-सी बस्तियां
एक-से लोग

भूल जाती है रास्ता...।

पूछती है भीड़, घर का पता
पर..
सलेटी फर्श
पत्थर की गली
चौबारे का कमरा
याद है इतना भर उसे,
नाम- ठिकाना
कभी न जाना
और भीड़ में
हिचकियां लेकर
लगती है रोने.....।

क्यों हो गई पायल छोटी
क्यों पुरतीं नहीं
टखनें की गोलाइयां अब
क्यों सारी सड़कें/बस्तियां/मकान
हैं एक-से
और क्यों नहीं
किसी तरह
लौट सकती
मैं ?

ना......नी... !!


-कविता वाचक्नवी


अमृतसर में जन्म
साहित्य और भाषा की अध्येता
ब्रिटेन में रहते हुए
लेखन व अध्ययन से जुड़ाव

Saturday, September 6, 2014

चाहत के हक़दार नहीं थे......................अमर मलंग





चाहत के हक़दार नहीं थे

उल्फ़त के बाज़ार नहीं थे


कैसे होती ये ग़ज़ल मुकम्मल,

शेर भी कुछ दमदार नहीं थे


बहुत तलाशा मिली न मंज़िल,

रास्ते भी हमवार नहीं थे


चमन की लूटी जिसने ख़ुशबू,

फूल ही है, वो ख़ार नहीं थे


गीत ख़शी के क्या गाते हम,

साथ हमारे वो यार नहीं थे


महफ़िल में जो घाव मिले हैं,

दुश्मन के वो वार नहीं थे


क्या हुआ जो पाई ठोकर.

अच्छे के तो आसार नहीं थे

-अमर मलंग

........... मधुरिमा से

Friday, September 5, 2014

कई ज़माने देखे..................-गोविन्द भारद्वाज






हमने कई ज़माने देखे,
दोस्त नये-पुराने देखे.

नशे मुक्त शहरों में हमने,
गली-गली मयखाने देखे

प्रेम नगर की इस बस्ती में
राह खड़े दीवाने देखे.

रपट कहां कोई लिखवाए
गुण्डो के घर थाने देखे

इन वीरानी-सी आँखों में
ख्वाब कई सुहाने देखे

बेच ज़ायदाद ब़ुज़ुर्गों की
दौलतमंद सयाने देखे

-गोविन्द भारद्वाज
 
........... मधुरिमा से

Wednesday, September 3, 2014

इनायत मत समझ लेना............हबीब कैफी



किसी से हंस के मिलने को मोहब्बत मत समझ लेना
कोई खामोश रहे तो अदावत मत समझ लेना

ये आती है तजुर्बों से, बुजुर्गों से ये मिलती है
किताबों के हवालों को ज़हानत मत समझ लेना

बुलाने से नहीं आते, ख़ुदा भिजवाता है इनको
जो आए घर कोई मेहमां, मुसीबत मत समझ लेना

शिकारी प्यार से दाना दिया करता है पंछी को
शिकारी की मोहब्बत को इनायत मत समझ लेना

जो लटकाता है फ़ांसी पर वो पहले पैर छूता है
किसी के झुक के मिलने को शराफत मत समझ लेना

-हबीब कैफी


प्राप्ति स्रोतः हेल्थ, पत्रिका

Tuesday, September 2, 2014

प्रार्थना का वक्त.............विपिन चौधरी

प्रार्थना का वक्त
यह प्रार्थना का वक्त है
एक सात्विक अहसास के साथ
हाथ जोड़कर खड़े हो जाओ
एक कतार में।

सभ्यताएं अपने तयशुदा हिस्सों को
एक-एक कर छोड़ती जा रही
बरसों पुरानी स्थापित इमारतें
दरक रही है अपनी नींव से
धीरे-धीरे।

पिछले हफ्ते के
सबसे अमीर आदमी को पछाड़कर
पहली संख्या पर जा विराजा है कोई
अभी-अभी।

नंगे पांवो को कहीं जगह नहीं है
और कीमती जूते सारी जगह को
घेरते चले जा रहे हैं।

अंधेरे को परे धकेल कर
रोशनी आई है सज संवरकर
आज सुबह ही उससे दोस्ती करने को
लालायित हैं कई दोस्त अपने भी

वाकई यही प्रार्थना का
सही वक्त है


-विपिन चौधरी
vipin.choudhary7@gmail.com



विपिन चौधरीः
२ अप्रैल १९७६, भिवानी (हरियाणा),खरकड़ी- माखवान गाँव
बी. एससी., एम. ए.(लोक प्रकाशन)
हरियाणा के भिवानी जिले के एक गाँव
जन्मी विपिन जी की कविताएं सहजता के साथ खुलती है

रचना प्राप्तः तरंग, नई दुनियां

 





Monday, September 1, 2014

एक खत.............अमृता प्रीतम


चांद सूरज दो दवातें, कलम ने बोसा लिया
लिखितम तमाम धरती, पढ़तम तमाम लोग
 
साईंसदान दोस्तों !
गोलियां, बंदूकें और एटम बनाने से पहले
इस ख़त को पढ़ लेना

हुक्मरान दोस्तों !
सितारों की हरफ़ और किरणों की बोली
अगर पढ़नी नहीं आती
किसी अदीब से से पढ़वा लेना
अपने किसी महबूब से पढ़वा लेना
और हर एक मां की यह मातृ-बोली है
तुम बैठ जाना किसी ठाँव
और ख़त पढ़वा लेना अपनी मां से
फिर आना और मिलना
कि मुल्क की हद है जहां है
एक हद मुल्क का
और नाप कर देखो
एक हद इल्म का
एक हद इश्क की
और फि बताना कि किसकी हद कहां है

चांद सूरज दो दवातें
हाथ में कलम लो
इस ख़त का जवाब दो
-तुम्हारी-अपनी-धरती

तुम्हारे ख़त की राह देखते बहुत फिकर कर रही

-अमृता प्रीतम
जन्मः 31 अगस्त , 1919
गुजरावाला , पंजाब
निधनः 31 अक्टूबर 2005, दिल्ली


स्रोतः रसरंग