चित्र:साभार गूगल
तन और मन की
देहरी के बीच
भावों के उफनते
अथाह उद्वेगों के ज्वार
सिर पटकते रहते है।
देहरी पर खड़ा
अपनी मनचाही
इच्छाओं को
पाने को आतुर
चंचल मन,
अपनी सहुलियत के
हिसाब से
तोड़कर देहरी की
मर्यादा पर रखी
हर ईंट
बनाना चाहता है
नयी देहरी
भूल कर वर्जनाएँ
भँवर में उलझ
मादक गंध में बौराया
अवश छूने को
मरीचिका के पुष्प
अंजुरी भर
तृप्ति की चाह लिये
अतृप्ति के अनंत
प्यास में तड़पता है
नादान है कितना
समझना नहीं चाहता
देहरी के बंधन से
व्याकुल मन
उन्मुक्त नभ सरित के
अमृत जल पीकर भी
घट मन की इच्छाओं का
रिक्त ही रहेगा।
-श्वेता सिन्हा
शुभ प्रभात सखी
ReplyDeleteबेहतरीन रचना
आभार
सादर
वाह!!श्वेता .....बहुत खूब !! सीमाएं देहरी के उस पार जाने की ,अन्तर मन की वेदना का खूबसूरत चित्रण ..।
ReplyDeleteतृप्ति की तड़प और अतृप्ति का अनंत आह्लाद ही आत्मा को अवगुंठित करते है।इस देहरी का अतिक्रमण कर जाना ही मुक्ति के द्वार खोलना है। सुन्दर रचना। आभार और बधाई।
ReplyDeleteसुन्दर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 07.06.2018 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2994 में दिया जाएगा
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद
Awesome
ReplyDeleteमन के ख़ाली अहसास को देहरी की मुक्ति कहाँ भर पाती है ... वी तो भटकाव बढ़ा देती है ...
ReplyDeleteबहुत ही ख़ूबसूरती से इस द्वन्द को रखा है आपने ...