प्रतीक्षारत था तपसी एक,
खड़ा पावन कालिंदी कूल।
पवन की गति थी अतिशय तीव्र,
फहर जाता था श्वेत दुकूल।
वक्ष उभरे अरु बाहु विशाल,
जटायें जलद सदृश थीं श्याम।
चक्षु रतनारे, नासा तीक्ष्ण
और उन्नत ललाट अभिराम।
तपोबल की आभा से दीप्त
हो रहा था उसका प्रत्यंग।
निरख चित्ताकर्षक वह रूप,
लजाता शत-शत बार अनंग।
स्मरण करता रह-रह प्रभुपाद,
कृपा कर दो हे जग-दातार।
निरर्थक बीत रहा है काल,
मिले तारिणी तो जाऊँ पार।
अचानक दृष्टि पड़ी जब दूर,
दिखी उसको नौका फिर एक।
किलक बैठा वह ज्यों नवजात,
किलकते जननि-वक्ष को देख।
हुई जैसे किंचित निकटस्थ,
मन्द गति से तिरती वह नाव।
नाविका श्यामल तरुणी देख,
हुए परिवर्तित ऋषि के भाव।
विवश क्यों खेने को है नाव,
अद्य कोमल कुमारिका एक?
जनक होगा इसका असमर्थ
लिए निर्धनता का अतिरेक।
अये रमणी! ले चल उस पार,
हो चुका अतिशय मुझे विलम्ब।
आज इस निर्जन यमुना तीर,
मिली तू इकलौती अवलम्ब।
हुए ज्यों ही उद्यत ऋषिराज,
बैठने को नौका के बीच।
वमन करते वे अपने पाँव
लिये बाहर सहसा ही खींच।
कुवासित सड़ी हुई ज्यों मीन,
अरी तरुणी! तेरी क्यों देह?
अश्रुओं की भारी बरसात,
लगे करने उसके दृग-मेह।
देव..! मैं सुता मत्स्य की एक,
मत्स्यगंधा है मेरा नाम।
एक नाविक ने उर से भेंट,
मुझे पाला-पोसा निष्काम।
भरण -पोषण में निज असहाय,
हुए हैं मेरे पालक वृद्ध।
सुताएँ भी रखतीं सामर्थ्य,
कर रही हूँ मैं तबसे सिध्द।
किन्तु मेरी दाहक-दुर्गंध,
कर रही नित मुझको श्रीहीन।
लोग करते रहते उपहास,
मीन की दुहिता भी है मीन।
न कर तू री! अब पश्चाताप,
भले तेरी माता थी मीन।
किन्तु कहता है तेरा भाल,
तुझे ब्याहेगा एक कुलीन।
किसी दुखिया-अबला का एक,
तपस्वी भी करते अपमान।
हुआ सुनकर अतिशय नैराश्य,
नहीं था किंचित इसका भान।
लपेटे रहती अपनी देह,
मरी मछली की जो दुर्गंध।
उसे पूछेगा कौन कुलीन,
कौन है इस जग में मतिमन्द?
अरी पगली! मैं कहता सत्य,
लिखा है तेरे यही ललाट।
भला जगती में किसके पास,
विधाता के लेखे की काट।
तपोबल से मेटूंगा अद्य,
तुम्हारी असहनीय दुर्गंध।
आज से निःसृत होगी सुनो !
बदन से पारिजात की गंध।
एक योजन तक निर्मल गन्ध,
भरेगी जन-जन में आह्लाद।
अरी योजनगन्धे ! निज-हृदय
न रख कोई अब और विषाद।
संग ही मिट जाएगा आज,
बदन का तेरे मैला रंग।
और पा यौवन का अधिभार,
निखर जाएंगे सारे अंग।
मिट गया उसका सारा म्लान,
पड़ी ज्यों उस पर मुनि की दृष्टि।
देखकर उसका मोहक रूप,
चकित हो बैठी सारी सृष्टि।
आपका यह पावन उपकार,
नहीं बिसरा सकती मैं नाथ।
मुझे चरणों की दासी मान,
ले चलें प्रभुवर अपने साथ।
अरी पगली, भोली, मतिमन्द !
तुझे है स्यात नहीं आभास।
लिखेगा तेरा मोहक रूप,
राष्ट्र का एक नवल इतिहास।
बनेगी रानी एक महान,
किन्तु विपदाएँ होंगी साथ।
सौख्य के संग दुखों के रंग,
लिखे हैं विधि ने तेरे माथ।
आह! यह रूप-राशि तब व्यर्थ,
आह! फिर राजयोग भी व्यर्थ।
हरो आसन्न दुखों को नाथ!
सुखों का निकले किंचित अर्थ।
अरी रमणी कहने में किन्तु,
हो रहा है अतिशय संकोच।
कहीं तू मान न बैठे सद्य,
माँग बैठा यह मुनि उत्कोच।
अरे ऋषिवर! दीजै आदेश,
आप दासी को निःसंकोच।
आपने बदला मेरा भाग्य,
आप मांगेंगे क्यों उत्कोच?
सुनो तब..! मुझसे होगा प्राप्त
तुम्हे अति विदुष एक शुभ-पुत्र।
उसी के पास रहेगा सदा,
तुम्हारी हर विपदा का सूत्र।
आह ! मिट जायेगा कौमार्य,
पतित मैं कहलाऊंगी नाथ।
न जीवित रह पाऊंगी लिए,
कलंकित अपना अवनत माथ।
अरी रमणी सुन मेरी बात!
न आयेगा ऐसा दुर्भाग्य।
न कलुषित होगा तेरा गात,
न टूटेगा मेरा वैराग्य।
मात्र दिखला दे अपनी देह!
अभी तू होकर वस्त्र विमुक्त।
डाल कर एक दृष्टि मैं मात्र,
करूँ मैं कुक्षि पुत्र से युक्त।
किन्तु ऋषि ! दिवा अभी है शेष,
और यह खुला हुआ स्थान।
अगर पड़ गयी अन्य की दृष्टि,
मिटेगी मेरी लाज महान।
किया तपबल से ऋषि ने पुनः,
घने कुहरे का आविर्भाव।
बना बैठी पावन इतिहास,
मत्स्यगंधा की वह शुचि नाव।
-राकेश मिश्रा