Tuesday, April 30, 2019
Monday, April 29, 2019
Sunday, April 28, 2019
मेरी गुलाबी कली ...श्वेता सिन्हा
सोनचिरई मेरी मिसरी डली
बगिया की मेरी गुलाबी कली
प्रथम प्रेम का अंकुर बन
जिस पल से तुम रक्त में घुली
रोम-रोम, तन-मन की छाया
तुम धड़कन हो श्वास में ढली
नन्ही नाजुक छुईमुई गु़ड़िया
छू कर रूई-फाहे-सी देह को,
डबडब भर आयी थी अँखियाँ
स्पर्श हुई थी जब उंगलियां मेरी।
महका घर-आँगन का कोना
चहका मन का खाली उपवन,
चंदा तारे सूरज फीके हो गये
पवित्र पावन तुम ज्योत सी जली।
हँसना-बोलना, रूठना-रोना तेरा
राग-रंग, ताल-सप्तक झंकृत
हर रूप तुझमें ही आये नज़र
सतरंगी इंद्रधनुष तुम जीवन से भरी।
एक आह भी तुम्हारा दर्द भरा
नयनों का अश्रु बन बह जाता है
मौन तुम्हारा जग सूना कर जाता है
मेरी लाडो यही तेरी है जादूगरी
मैं मन्नत का धागा हूँ तेरे लिए
तुझमें समायी मैं बनके शिरा
न चुभ जाये काँटा भी पाँव कहीं
रब से चाहती हूँ मैं खुशियाँ तेरी
Saturday, April 27, 2019
कूकती कोयल ....सीमा 'सदा' सिंघल
तुम्हारी दूरियाँ आईं
नजदीकियों ने हँसकर जब भी
विदा किया
एक कोना उदासी का लिपट कर
तुम्हारे काँधे से सिसका पल भर को
फिर एक थपकी हौसले की
मेरी पीठ पर तुम्हारी हथेलियों ने
रख दी चलते-चलते !
.....
मेरे कदम ठिठक गए पल भर
कितने कीमती लम्हे थे
उस थपकी में
जिनका भार मेरी पीठ पर
तुम्हारी हथेली ने रखा था
भूलकर जिंदगी कितना कुछ
हर बार मुस्कराती रही
उम्मीद को हँसने की वजह
नम आँखों से भी बताती रही
गले लगती जो कभी
सुबककर रात तो
उसे भोर में चिडि़यों का चहचहाना
सूरज की किरणें दिखलाती रही !!
....
कूकती कोयल
अपनी मधुरता से
अपनी मधुरता से
आकर्षित करती सबको
भूल जाते सब उसके काले रंग को
मीठा राग है जिंदगी भी
बस तुम्हें हर बार इसे
भूलकर मुश्किलों को
गुनगुनाना होगा पलकों पे
इक नया ख्वाब बुनकर
उसे लम्हा-लम्हा सजाना होगा !!!
-सीमा 'सदा' सिंघल
Friday, April 26, 2019
Thursday, April 25, 2019
आँसुओं की माप क्या है?.....अमित निश्छल
रोक लेता चीखकर
तुमको मगर अहसास ऐसा,
ज़िंदगी की वादियों में
शोक का अधिवास कैसा?
नासमझ, अहसास मेरे
क्रंदनों के गीत गाते,
लालची इन चक्षुओं को
चाँद से मनमीत भाते।
ढूँढ़ता हूँ जाग कर
गहरी निशा की ख़ाक में,
वंदनों से झाँकता
अभिनंदनों के ताक में।
उत्तरोत्तर आज भी
चरितार्थ कितनी? बोलकर,
चित्त में गहरे छिपे
मनभाव को झकझोर कर।
ओ मेरे भटके बटोही
आज बस इतना बता दे,
काव्य में लथपथ पड़े
इन आँसुओं की माप क्या है?
-अमित “निश्छल”
तुमको मगर अहसास ऐसा,
ज़िंदगी की वादियों में
शोक का अधिवास कैसा?
नासमझ, अहसास मेरे
क्रंदनों के गीत गाते,
लालची इन चक्षुओं को
चाँद से मनमीत भाते।
ढूँढ़ता हूँ जाग कर
गहरी निशा की ख़ाक में,
वंदनों से झाँकता
अभिनंदनों के ताक में।
उत्तरोत्तर आज भी
चरितार्थ कितनी? बोलकर,
चित्त में गहरे छिपे
मनभाव को झकझोर कर।
ओ मेरे भटके बटोही
आज बस इतना बता दे,
काव्य में लथपथ पड़े
इन आँसुओं की माप क्या है?
-अमित “निश्छल”
Wednesday, April 24, 2019
Tuesday, April 23, 2019
रोजनामचा.....पूजा प्रियंवदा
शाम को जब घरों में होती है रौशनी
देखना मेरी उन आँखों से
जिनका कभी घर न हुआ
बच्चों की हथेलियाँ थामना
मेरे उन हाथों से
जिन्होंने दफन किया कई अपने
अलविदा की घड़ी
महसूस करना मेरे उस दिल से
जो धड़कता रहा तुम्हारे जाने के बाद भी
फूल नहीं पसंद मुझे
किताबें बहुत महंगी हैं
समन्दर बहुत दूर है
अकेलापन भारी है पूरी दुनिया से
कंधे अब दुखते हैं हर वक़्त
बेचना मेरा दुःख
जैसे कोई औरत बेचती है
देह का एक-एक रोआं
ताकि अपने बच्चे को सीने से लगा सके
एक जगह ढूँढना
कहीं किसी पेड़ के पास
पूछना उससे और मुझे इजाज़त दिलाना
की रख सकूं अब अपना जनाज़ा
उसकी छाँव में
जैसे तुम्हारे सीने पर थक कर
कभी सर रखा था
-पूजा प्रियंवदा
Monday, April 22, 2019
चुगली कहूँ........ज़हीर अली सिद्दीक़ी
चुगली कहूँ...
या क्रिकेट की गुगली
क्रमशः करने और दूसरा डालने पर
बोल्ड होना तय है॥
तरक्क़ी से भय
चापलूसी से उदय
मुहब्बत की दिखावटी विधा
लोकमत की ख़िलाफ़त तय है॥
मित्रता को सर्पदंश
आपसी रिश्ते के शकुनि-कंस
प्रेमिका से तक़रार
विध्वंसक नतीजा तय है॥
कहीं मनोरंजन तो...
मनमुटाव कहीं...
प्रतिशोध की ज्वाला की वजह कहीं
अंधकारमय नतीजा तय है॥
चाल है प्रकाश की
ऊर्जा है आकाश सी
कम्पन है भूकंप की
कम्पन से प्रवास तय है॥
भूत से वर्तमान का
भविष्य है रहस्य का
रहस्य ही प्रचंड है
गोपनीयता का दंग होना तय है॥
-ज़हीर अली सिद्दीक़ी
Sunday, April 21, 2019
Saturday, April 20, 2019
स्वप्न की जलती राह.....सरिता यादव
कुछ उथले से कुछ गहरे से।
भाँति भाँति के चित्र उभर कर बूँद बूँद बिखरे से।
हाँ यही स्वप्न और जीवन है।
जिनको जन मानस पालता है।
मन के कोने कोने में।
कुछ हाँ मीठी कुछ तीखी याद में बीते।
किन्तु शीतल शीघ्र गर्म हवा में रीते।
काँच की तरह बिखर जाएँ फ़र्श पर,
पल भर में, सँजोए सारे स्वप्न।
बस यही ज़िन्दगी है।
उम्र के गलियारे हर मोड़ नये होते हैं।
मिले कई बिछड़े कई।
अन्त में कौन किसके साथ होते हैं?
यही ज़िन्दगी है।
-सरिता यादव
Friday, April 19, 2019
प्रश्न और प्रश्न.....सतीश राय
प्रश्न चिन्हों की नदी में
डूबता मैं जा रहा,
सब चले पतवार लेकर,
मैं भँवर में नहा रहा।
है ये हिम्मत या हिमाक़त,
वक़्त ही बताएगा,
अपनी धुन हम ख़ुद रटेंगे,
या ज़माना गायेगा।
सब चले पक्की सड़क पर,
पगडण्डी मैं बना रहा,
प्रश्न चिन्हों की नदी में
डूबता मैं जा रहा।
अपने ख़्वाबों को सँजोए,
दिल ही दिल में जो गदगदा रहा,
कल के बदले में कहीं मैं,
आज तो ना गँवा रहा?
मैं किनारे रुक कर तनिक
सोच तो लूँ, पर कैसे!
आकांक्षाओं का प्रवाह मुझे
प्रतिपल बहाता जा रहा।
क्यूँ न जाकर वापस मैं भी,
पकड़ लूँ वही पक्की डगर?
महफ़िलों की भीड़ में मैं,
ख़ुद को खो न लूँ मगर!
पीछे पड़े अपने निशां पर,
मैं जो यूँ इठला रहा,
प्रश्न चिन्हों को मैं
अपने प्रश्नों में ही डूबा रहा।
जो भी संशय था,
अब ना रहा.....अब ना रहा!
-सतीश राय
Thursday, April 18, 2019
Wednesday, April 17, 2019
आपके एहसास ने...श्वेता सिन्हा
आपके एहसास ने जबसे मुझे छुआ है
सूरज चंदन भीना,चंदनिया महुआ है
मन के बीज से फूटने लगा है इश्क़
मौसम बौराया,गाती हवायें फगुआ है
वो छोड़कर जबसे गये हमको तन्हा
बेचैन, छटपटाती पगलाई पछुआ है
लगा श्वेत,कभी धानी,कभी सुर्ख़,
रंग तेरी चाहत का मगर गेरुआ है
क्या-क्या सुनाऊँ मैं रो दीजिएगा
तड़पकर भी दिल से निकलती दुआ है
जीवन पहेली का हल जब निकाला
ग़म रेज़गारी, खुशी ख़ाली बटुआ है
Tuesday, April 16, 2019
ताज़ी नज़्म पकाते हैं....दिलीप
चाँद अंगीठी जला के ताज़ी नज़्म पकाते हैं...
थोड़ा सा एहसास गूँथ लो, कल ही पिसवाया हैं...
ग़म के फिर चकले बेलन पर उसे घुमाते हैं...
पिछली बार की जो ग़ज़लें बाँधी थी मैने ख़त में...
चलो उसे चखने से पहले कुछ गर्माते हैं...
खट्टी बादल की चटनी या तारों की शक्कर से...
तोड़ तोड़ कर एक निवाला चाव से खाते हैं...
वो जो ऊपर रात की रानी उड़ती रहती है...
चलो उसे भी प्याले मे भर ओस पिलाते हैं...
ज़रा ओस फिर हम पी लें और थोड़ी मदहोशी में...
चलो ओढ़ कर हवा सुहानी हम सो जाते हैं...
आओ दिन की फ़र्श पे दोनों रात बिछाते हैं...
चाँद अंगीठी जला के ताज़ी नज़्म पकाते हैं...
Monday, April 15, 2019
क्षण दोष .........शेष अमित
नदी जब बहती है
तो घुला लेती है अपने में,
राह की भाषा-
कुछ मन की, कुछ तन की
और कुछ जो परे हैं इनसे,
उद्गम का वह बाल जल-बिन्दु,
मुहाने तक आते-आते,
ज्ञान और अनुभव से झुक गया है थोड़ा,
एक बार बाढ़ के समय,
मेरे गाँव के तालाब से मिला था,
तब से उसमें प्रेम का छाया-दोष है,
कई बार अकबका जाता है,
आस्मां को ताकता है शून्यता भर अंदर-
जबकि नज़र होनी थी ज़मीन पर,
सागर में विलीन होकर भी,
आंय-बांय-सांय बकता है,
पीछे घूमकर देखता है,
अंधी आँखों से छूटे राह को,
निबद्ध और दीवाना!
-शेष अमित
Sunday, April 14, 2019
चमत्कार.....
मासूम गुड़िया बिस्तर से उठी और अपना गुल्लक ढूँढने लगी…
अपनी तोतली आवाज़ में उसने माँ से पूछा, “माँ, मेला गुल्लक कहाँ गया?”
माँ ने आलमारी से गुल्लक उतार कर दे दिया और अपने काम में व्यस्त हो गयी.
मौका देखकर गुड़िया चुपके से बाहर निकली और पड़ोस के मंदिर जा पहुंची.
सुबह-सुबह मंदिर में भीड़ अधिक थी…. हाथ में गुल्लक थामे वह किसी तरह से बाल-गोपाल के सामने पहुंची और पंडित जी से कहा, “बाबा, जला कान्हा को बाहल बुलाना!”
“अरे बेटा कान्हा अभी सो रहे हैं… बाद में आना..”,पंडित जी ने मजाक में कहा.
“कान्हा उठो.. जल्दी कलो … बाहल आओ…”, गुड़िया चिल्ला कर बोली.
हर कोई गुड़िया को देखने लगा.
“पंडित जी, प्लीज… प्लीज कान्हा को उठा दीजिये…”
“क्या चाहिए तुमको कान्हा से?”
“मुझे चमत्काल चाहिए… और इसके बदले में मैं कान्हा को अपना ये गुल्लक भी दूँगी… इसमें 100 लूपये हैं …कान्हा इससे अपने लिए माखन खरीद सकता है. प्लीज उठाइए न उसे…इतने देल तक कोई छोता है क्या???”
“ चमत्कार!, किसने कहा कि कान्हा तुम्हे चमत्कार दे सकता है?”
“मम्मा-पापा बात कह लहे थे कि भैया के ऑपरेछन के लिए 10 लाख लूपये चाहिए… पल हम पहले ही अपना गहना… जमीन सब बेच चुके हैं…और नाते-रिश्तेदारों ने भी फ़ोन उठाना छोड़ दिया है…अब कान्हा का कोई चमत्काल ही भैया को बचा सकता है…”
पास ही खड़ा एक व्यक्ति गुड़िया की बातें बड़े ध्यान से सुन रहा था, उसने पूछा, “बेटा क्या हुआ है तुम्हारे भैया को?”
“ भैया को ब्लेन ट्यूमल है…”
“ब्रेन ट्यूमर???”
“जी अंकल, बहुत खतल्नाक बिमाली होती है…”
व्यक्ति मुस्कुराते हुए बाल-गोपाल की मूर्ती निहारने लगा…उसकी आँखों में श्रद्धा के आंसूं बह निकले…रुंधे गले से वह बोला, “अच्छा-अच्छा तो तुम वही लड़की हो… कान्हा ने बताया था कि तुम आज सुबह यहाँ मिलोगी… मेरा नाम ही चमत्कार है… लाओ ये गुल्लक मुझे दे दो और मुझे अपने घर ले चलो…”
वह व्यक्ति लन्दन का एक प्रसिद्द न्यूरो सर्जन था और अपने माँ-बाप से मिलने भारत आया हुआ था. उसने गुल्लक में पड़े मात्र सौ रुपयों में ब्रेन ट्यूमर का ऑपरेशन कर दिया और गुड़िया के भैया को ठीक कर दिया.
अपनी तोतली आवाज़ में उसने माँ से पूछा, “माँ, मेला गुल्लक कहाँ गया?”
माँ ने आलमारी से गुल्लक उतार कर दे दिया और अपने काम में व्यस्त हो गयी.
मौका देखकर गुड़िया चुपके से बाहर निकली और पड़ोस के मंदिर जा पहुंची.
सुबह-सुबह मंदिर में भीड़ अधिक थी…. हाथ में गुल्लक थामे वह किसी तरह से बाल-गोपाल के सामने पहुंची और पंडित जी से कहा, “बाबा, जला कान्हा को बाहल बुलाना!”
“अरे बेटा कान्हा अभी सो रहे हैं… बाद में आना..”,पंडित जी ने मजाक में कहा.
“कान्हा उठो.. जल्दी कलो … बाहल आओ…”, गुड़िया चिल्ला कर बोली.
हर कोई गुड़िया को देखने लगा.
“पंडित जी, प्लीज… प्लीज कान्हा को उठा दीजिये…”
“क्या चाहिए तुमको कान्हा से?”
“मुझे चमत्काल चाहिए… और इसके बदले में मैं कान्हा को अपना ये गुल्लक भी दूँगी… इसमें 100 लूपये हैं …कान्हा इससे अपने लिए माखन खरीद सकता है. प्लीज उठाइए न उसे…इतने देल तक कोई छोता है क्या???”
“ चमत्कार!, किसने कहा कि कान्हा तुम्हे चमत्कार दे सकता है?”
“मम्मा-पापा बात कह लहे थे कि भैया के ऑपरेछन के लिए 10 लाख लूपये चाहिए… पल हम पहले ही अपना गहना… जमीन सब बेच चुके हैं…और नाते-रिश्तेदारों ने भी फ़ोन उठाना छोड़ दिया है…अब कान्हा का कोई चमत्काल ही भैया को बचा सकता है…”
पास ही खड़ा एक व्यक्ति गुड़िया की बातें बड़े ध्यान से सुन रहा था, उसने पूछा, “बेटा क्या हुआ है तुम्हारे भैया को?”
“ भैया को ब्लेन ट्यूमल है…”
“ब्रेन ट्यूमर???”
“जी अंकल, बहुत खतल्नाक बिमाली होती है…”
व्यक्ति मुस्कुराते हुए बाल-गोपाल की मूर्ती निहारने लगा…उसकी आँखों में श्रद्धा के आंसूं बह निकले…रुंधे गले से वह बोला, “अच्छा-अच्छा तो तुम वही लड़की हो… कान्हा ने बताया था कि तुम आज सुबह यहाँ मिलोगी… मेरा नाम ही चमत्कार है… लाओ ये गुल्लक मुझे दे दो और मुझे अपने घर ले चलो…”
वह व्यक्ति लन्दन का एक प्रसिद्द न्यूरो सर्जन था और अपने माँ-बाप से मिलने भारत आया हुआ था. उसने गुल्लक में पड़े मात्र सौ रुपयों में ब्रेन ट्यूमर का ऑपरेशन कर दिया और गुड़िया के भैया को ठीक कर दिया.
-संकलित
Saturday, April 13, 2019
एक औरत .....पूजा प्रियम्वदा
तुम्हारे बच्चों की माँ को
उनके साथ सोता छोड़कर
एक औरत दुनिया में लौटती है
हँसती है
जितना वो चाहें
जब वो चाहें और
पहनती है जो वो चाहें
उतारती है जब वो चाहें
जिस्म से बहुत गहरे कहीं
खुद को अजनबियों के नीचे
एक सामूहिक कब्र में दफन कर
लौट आती है
धोती है गर्म पानी से हाथ
तुम्हारी बेटी के चेहरे को सहलाती है
तुम्हारे बेटे का माथा चूमती है
फिर से सिर्फ उनकी माँ बन जाती है
Friday, April 12, 2019
टीस....विजय शंकर प्रसाद
कागज की नैया किसकी दीवानी ?
नभ के पत्थर धरा पर कहानी ,
कठोर गड्ढा सड़क पर विवश जवानी ।
बचपन की याद और मौन वाणी,
बुढापा तक तो बोल उठा ज्ञानी ।
नदी रचें यात्रा में न आनाकानी,
सिंधु तक जा न शेष मनमानी ।।
प्रकृति तो नहीं कभी भी बेपानी,
गुलाब और शूल से प्रकट नादानी ।
धूल,कीचड़,हवा भी है खानदानी,
धूप और पसीना की भी मेहरबानी ।।
कुछ तो रहने दो अपनी निशानी,
तनातनी में हर आहट है गुमानी ।
निर्मल निशा भी सरल नहीं अनजानी ,
तन- मन में पीड़ादायक है भाव बदजुबानी ।।
आह से वाह रे चाह प्राणी,
अश्क और इश्क क्या स्वप्न अज्ञानी ??
गुलाम की टीस भी पुरानी ,
अभिसारिका अब क्या है ठानी ???
- विजय शंकर प्रसाद.