Wednesday, February 28, 2018
Tuesday, February 27, 2018
याद आया तो ज़रूर होगा !! ..............सदा
कभी प्रेम
कभी रिश्ता कोई
बन गया हमनवां जब
तुमने जिंदगी को
हँस के गले
लगाया तो ज़रूर होगा !
...
मांगने पर भी
जो मिल न पाया
ऐसा कुछ छूटा हुआ
बिछड़ा हुआ
कभी न कभी
याद आया
तो ज़रूर होगा !!
...
कोई शब्द जब कभी
अपनेपन की स्याही लिए
तेरा नाम लिखता
हथेली पे
तुमने चुराकर नज़रें
वो नाम
पुकारा तो ज़रूर होगा!!!
...
-सीमा सदा
Monday, February 26, 2018
चुप................प्रियंका सिंह
मैं
चुप से सुनती
चुप से कहती और
चुप सी ही रहती हूँ
मेरे
आप-पास भी
चुप रहता है
चुप ही कहता है और
चुप सुनता भी है
अपने
अपनों में सभी
चुप से हैं
चुप लिए बैठे हैं और
चुप से सोये भी रहते हैं
मुझसे
जो मिले वो भी
चुप से मिले
चुप सा साथ निभाया और
चुप से चल दिए
मेरी
ज़िन्दगी लगता है
चुप साथ बँधी
चुप संग मिली और
चुप के लिए ही गुज़री जाती है
कितनी
गहरी, लम्बी और
ठहरी सी है ये
मेरी
चुप की दास्ताँ........
-प्रियंका सिंह
चुप से सुनती
चुप से कहती और
चुप सी ही रहती हूँ
मेरे
आप-पास भी
चुप रहता है
चुप ही कहता है और
चुप सुनता भी है
अपने
अपनों में सभी
चुप से हैं
चुप लिए बैठे हैं और
चुप से सोये भी रहते हैं
मुझसे
जो मिले वो भी
चुप से मिले
चुप सा साथ निभाया और
चुप से चल दिए
मेरी
ज़िन्दगी लगता है
चुप साथ बँधी
चुप संग मिली और
चुप के लिए ही गुज़री जाती है
कितनी
गहरी, लम्बी और
ठहरी सी है ये
मेरी
चुप की दास्ताँ........
-प्रियंका सिंह
Sunday, February 25, 2018
ज़िन्दगी की राह में.....अरुण तिवारी "अनजान"
ज़िन्दगी की राह में वो मुक़ाम आये हैं।
हमने चोट खाई है फिर भी गीत गाये हैं।।
लाख हादिसे हमें रोकें आ के राह में,
रोके रुक न पाएंगे जब क़दम बढ़ाये हैं।
जगमगाता आवरण देखा तो पता चला,
पन्ने उस क़िताब के ख़ून में नहाये हैं।
आई जो बुरी घड़ी वक़्त ने ये सीख दी,
मतलबी जहान में अपने भी पराये हैं।
धूप में खड़ा हुआ आज है वही ‘अरुण’
जिसने औरों के लिए पेड़ ख़ुद लगाये हैं।
- अरुण तिवारी "अनजान"
Saturday, February 24, 2018
Friday, February 23, 2018
कैसे ये बच्चा सुधर गया...राजेश रेड्डी
यूँ देखिये तो आँधी में बस इक शजर गया
लेकिन न जाने कितने परिन्दों का घर गया
जैसे ग़लत पते पे चला आए कोई शख़्स
सुख ऐसे मेरे दर पे रुका और गुज़र गया
मैं ही सबब था अबके भी अपनी शिकस्त का
इल्ज़ाम अबकी बार भी क़िस्मत के सर गया
अर्से से दिल ने की नहीं सच बोलने की ज़िद
हैरान हूँ मैं कैसे ये बच्चा सुधर गया
उनसे सुहानी शाम का चर्चा न कीजिए
जिनके सरों पे धूप का मौसम ठहर गया
जीने की कोशिशों के नतीज़े में बारहा
महसूस ये हुआ कि मैं कुछ और मर गया
- राजेश रेड्डी
Thursday, February 22, 2018
आँगन की चिड़िया....सीमा 'सदा' सिंघल
बेटी बाबुल के दिल का टुकड़ा भैया की मुस्कान होती है,
आँगन की चिड़िया माँ की परछाईं घर की शान होती है !
..
खुशियों के पँख लगे होते हैं उसको घर के हर कोने में
रखती है अपनी निशानियां जो उसकी पहचान होती हैं !
..
माँ की दुलारी पापा की लाडली भैया की नखरीली वो
रूठती झगड़ती इतराती हुई करुणा की खान होती है !
..
भाई की राखी दूज का टीका मीलों दूर होकर भी जब
वो सजल नयनों से भेजकर हर्षाये तो सम्मान होती है !
..
संध्या वंदन कर एक दिया आँगन की तुलसी पे रखती,
मानो ना मानो बेटी तो सदा दिल का अरमान होती है !
- सीमा 'सदा' सिंघल
Wednesday, February 21, 2018
वह सांप विषैला है तो मर क्यों नहीं जाता.....नूर मोहम्मद 'नूर'
जब शाम डराती है तो डर क्यों नहीं जाता
मैं सुब्ह का भूला हूं तो घर क्यों नहीं जाता।
ये वक्त ही दुश्मन है सितमगर है, अगर तो
मैं वक्त के सीने में उतर क्यों नहीं जाता।
सिमटा है अंधेरों में उजाले की तरह क्यों
यह दर्द मेरे दिल का बिखर क्यों नहीं जाता।
आज़ाद हूं तो फिर मेरी परवाज़ किधर है
नश्शा ये ग़ुलामी का उतर क्यों नहीं जाता।
हर रोज़ ही डंसता है उजाले को हवा को
वह सांप विषैला है तो मर क्यों नहीं जाता
क्या है जो उभरता है मेरे ज़ेहन में अक्सर
क्या है जो झिझकता है संवर क्यों नहीं जाता।
-नूर मोहम्मद 'नूर'
Tuesday, February 20, 2018
गूंगी मूर्तियाँ.....मंजू मिश्रा
ये गूंगी मूर्तियाँ
जब से बोलने लगी हैं
न जाने कितनों की
सत्ता डोलने लगी है
जुबान खोली है
तो सज़ा भी भुगतेंगी
अब छुप छुपा कर नहीं
सरे आम...
खुली सड़क पर
होगा इनका मान मर्दन
कलजुगी कौरवों की सभा
सिर्फ ठहाके ही नहीं लगाएगी
बल्कि वीडियो भी बनाएगी
अपमान और दर्द की इन्तहा में
ये मूर्तियाँ
फिर से गूंगी हो जाएँगी
नहीं हुईं तो
इनकी जुबानें काट दी जाएँगी
मगर अपनी सत्ता पर
आँच नहीं आने दी जाएगी
- मंजू मिश्रा
Monday, February 19, 2018
प्रश्न?.....मुकेश कुमार तिवारी
प्रश्न?
हवा में तैरते हैं
जैसे प्रकाश की किरण में झलकते है
धूल के कण अंधेरे कमरे में
भले ही हम उन्हें देख नही पाये उजाले में
प्रश्न?
जमे रहते हैं किताबों की जिल्द पर
मेज की दराज में
शर्ट के कॉलर पर
या उलझे बालों में
कितना भी झाड़ो बुहारो
प्रश्न उड़ कर इस जगह से उस जगह चले जाते है
या जमे रह जाते है सोफे की किनारो में फँसी धूल की तरह
प्रश्न?
अमीबा की तरह होते हैं
हर इक प्रश्न जब टूट्ता है समाधानों में
तो अपने हर हिस्से से पैदा करता है प्रश्न कई
जैसे चट्टान टूट कर बँट जाती है
पत्थर, गिट्टी, रेत या धूल में
और ज़िन्दा रहती है टुकडों में बँटी हुई
प्रश्न?
बारूद की तरह होते हैं
जब तक बना सहा नही तो फूट पड़ते हैं।
प्रश्न?
तेजाब की तरह होते हैं
जहाँ गिरे वहाँ अपनी छाप छोड़ी
या किसी और को पनपने नहीं दिया।
प्रश्न?
बंदूक की तरह होते हैं
जब दगते है तो यह नहीं देखते
कि दिल घायल होगा या मन आहत
बस आग उगलते हैं।
प्रश्न?
चाहे जैसे भी हो
प्रश्न, प्रश्न ही होते है
कई समाधानों का समांकलन
एक प्रश्न नहीं होता
एक प्रश्न के कई समाधान हो सकते हैं
प्रश्न, प्रश्न ही रहतें हैं।
-मुकेश कुमार तिवारी
Sunday, February 18, 2018
उदास गीत कहाँ वादियों ने गाया है.......शकुन्तला श्रीवास्तव
चला है साथ कभी बादलों में आया है
ये चाँद है कि मेरे साथ तेरा साया है।
ये दर्द मेरा है, जो पत्तियों से टपका है
ये रंग तेरा है, फूलों ने जो चुराया है।
ये भीगी शाम, उदासी, धुँआ, धुँआ, मंज़र
उदास गीत कहाँ, वादियों ने गाया है।
ये हौंसले की कमी थी कि सर झुकाये हुए
वो खाली हाथ समन्दर से लौट आया है।
सिसक सिसक के जला है मगर जला तो सही
मेरे चराग़ को आँधी ने आजमाया है।
-शकुन्तला श्रीवास्तव
Saturday, February 17, 2018
Friday, February 16, 2018
Thursday, February 15, 2018
इश्क-ए - रवायत भारी है...डॉ. इन्दिरा गुप्ता
रात अकेली चाँद अकेला
गुजर रहा हें सन्नाटा
चँद्र किरण जल बीच समाई
जल उतरा जो चाँद ज़रा सा !
लहर चंदनिया झुला रही है
एहसास -ए - दिल भी डोल रहा
चिर - चिर झींगुर सा सन्नाटा
बन्द द्वार सब खोल रहा !
तट - तरनी जल शाँत बह रहा
चीड़ वृक्ष है दम साधे
लो आज भी रजनी चल दी
लिये अरमान प्यासे - प्यासे !
रोज आस बँधती टूटती
सिलसिला आज भी जारी हें
नहीँ आस छूटती फिर भी
इश्क-ए - रवायत भारी है !
-डॉ. इन्दिरा गुप्ता✍
Wednesday, February 14, 2018
नदी को सागर मिला नहीं है.....निर्मला कपिला
गिला-औ-शिकवा रहा नहीं है
मलाल फिर भी गया नहीं है
तलाश उसकी हुई न पूरी
नदी को सागर मिला नहीं है
बुला के मुझको किया जो रुसवा
ये बज़्म की तो अदा नहीं है
ये तो मुहब्बत लगी अलामत
अलील दिल की दवा नहीं है
गुलों के जैसे जिओ खुशी से
के ज़िंदगी का पता नहीं है
ग़रूर दौलत प किस लिए हो
ये धन किसी का सगा नहीं है
शरर ये नफरत का किसने फेंका
जो आज तक भी बुझा नहीं है
किसी को शीशा दिखा रहा जो
वो दूध का खुद धुला नहीं है
उलाहना दूं उसे जो निर्मल
यही तो मुझसे हुया नहीं है
- निर्मला कपिला
Tuesday, February 13, 2018
एक नन्ही सी नाजुक-नर्म कविता .....स्मृति आदित्य
रोज ही
एक नन्ही सी
नाजुक-नर्म कविता
सिमटती-सिकुड़ती है
मेरी अंजुरि में..
खिल उठना चाहती है
किसी कली की तरह...
शर्मा उठती है
आसपास मंडराते
अर्थों और भावों से..
शब्दों की आकर्षक अंगुलियां
आमंत्रण देती है
बाहर आ जाने का. ..
नहीं आ पाती है
मुरझा जाती है फिर
उस पसीने में,
जो बंद मुट्ठी में
तब निकलता है
जब जरा भी फुरसत नहीं होती
कविता को खुली बयार में लाने की...
कविता....
लौट जाती है
अगले दिन
फिर आने के लिए...
बस एक क्षण
केसर-चंदन सा महकाने के लिए....
-स्मृति आदित्य
Monday, February 12, 2018
Sunday, February 11, 2018
जाने क्यूँ !!!...................सदा
शब्दों की चहलकदमी से
आहटें आती रहीं
सन्नाटे को चीरता
एक शोर
कह जाता कितना कुछ
मौन ही !
बिल्कुल वैसे ही
मेरी खामोशियाँ आज भी
तुमसे बाते करती हैं
पर ज़बां ने खा रखा है
चुप्पी का नमक
कुछ भी कहने से
इंकार है इसे
जाने क्यूँ !!!
-सीमा सदा सिंघल
......फेसबुक से
Saturday, February 10, 2018
वो उग आये................ शंकर सिंह परगाई
उग आते हैं
तुम्हारे मन–मस्तिष्क के
उन गीले
कोनों पर
जहाँ भी
हल्की-सी सीलन है।
वहाँ पनप जाते है वो
तुम्हारे भीतर
तब तुम्हें
उनकी ही तरह
सही लगता है
किसी एक रंग को ही
सारे रंगो से फीका कहना।
गुमान लगता है तुम्हें
भूखे पेट भी
मंदिर मस्जिद का
नारा लगाना।
नही चुभते है तब तुम्हारे
कोमल हृदय में
कैक्टस के सख़्त काँटे भी
आख़िर जगह दी थी
तुमने ही..।
वो उग आये
मन–मस्तिष्क के
गीले कोनों पर
जहाँ हल्की-सी भी
सीलन रहती रही।
- शंकर सिंह परगाई
Friday, February 9, 2018
गुफ़्तगू इससे भी करा कीजे.....नीरज गोस्वामी
गुफ़्तगू इससे भी करा कीजे
दोस्त है दिल ना यूँ डरा कीजे
दर्द सह कर के मुस्कुराना है
आप घबरा के मत मरा कीजे
जब सकूँ सा कभी लगे दिल में
तब दबी चोट को हरा कीजे
याद आना है ख़ूब आओ मगर
मेरी आँखों से ना झरा कीजे
क्या है इन्साफ़ बस सजाऐं ही
कभी खोटे को भी खरा कीजे
नहीं आसान थामना फिर भी
हाथ उसकी तरफ जरा कीजे
वो है खुशबू ये जान लो नीरज
उसको साँसों में बस भरा कीजे
-नीरज गोस्वामी
Thursday, February 8, 2018
पागल मन....लक्ष्मीनारायण गुप्त
शराब है, मस्ती है, बेफ़िक्री है
मगर साकी नहीं पास है
बिन साकी के शराब पीने में
न मज़ा है, न हुलास है
साकी को देखा तो नीयत बदल गई
क्या कहूँ मेरी तक़दीर बिगड़ गई
साकी को यह बात बताऊँ कैसे
ना सुनने की हिम्मत मैं कर पाऊँ कैसे
पागल मन की बात बताऊं कैसे
नामुमकिन को मुमकिन कर पाऊँ कैसे
तू ही बता तुझे मैं पाऊँ कैसे
दीवाने दिल की प्यास बुझाऊँ कैसे
नहीं बताने की हिम्मत है मुझमें
पर नज़र मिलाना चाहूँगा मैं तुझसे
किस अदा से तू शराब ढालती प्याले में
मज़ा आगया तुझसे नज़र मिल जाने में
पागल मन को समझाता हूँ
पाने की उम्मीद छोड़, तू हारा
नज़र मिल गई, क़िस्मत अच्छी
क्या यह कम है यारा
-लक्ष्मीनारायण गुप्त