Saturday, August 29, 2015

सोचिए ज़रा...यशोदा

हार्दिक पटेल...

लोगों का हुजूम

टूट पड़ा है

हर कोई बनना चाहता है

हार्दिक पटेल


क्यों नहीं है ख्वाहिश

बनने की

पार्थिव पटेल


क्यों नहीं बनना चाहते

अक्षर पटेल..

जिसने कल 

भारत का नाम

रौशन किया


सोचिए ज़रा...

इस दिशा में भी

-यशोदा

Sunday, August 23, 2015

बार-बार जन्म लेती रहे बेटियां..."फाल्गुनी"










मुझे अच्छी लगती है 
दूसरे या तीसरे नंबर की वे बेटियां 
जो बेटों के इंतजार में जन्म लेती है....

और जाने कितने बेटों को पीछे कर आगे बढ़ जाती है, 
बिना किसी से कोई उम्मीद या अपेक्षा किए

क्या कहीं किसी घर में 
बेटी के इंतजार में जन्मे 
बेटे कर पाते हैं यह कमाल....

अगर नहीं 
तो चाहती हूं कि 
हर बार बेटों के इंतजार में 
जन्म लेती रहें बेटियां...

पोंछ कर अपने चेहरे से 
छलकता तमाम 
अपराध बोध... 
आगे बढ़ती रहे बेटियां... 
बार-बार जन्म लेती रहे बेटियां...

-स्मृति आदित्य जोशी "फाल्गुनी"










Saturday, August 22, 2015

गुलमोहर की सिंदूरी छांव तले...... "फाल्गुनी"
















कल जब 
निरंतर कोशिशों के बाद, 
नहीं जा सकी 
तुम्हारी याद, 

तब
गुलमोहर की सिंदूरी छांव तले 
गहराती 
श्यामल सांझ के
पन्नों पर 
लिखी मैंने 
प्रेम-कविता, 
शब्दों की नाजुक कलियां समेट 
सजाया उसे 
आसमान में उड़ते 
हंसों की 
श्वेत-पंक्तियों के परों पर, 
चांद ने तिकोनी हंसी से 
देर तक निहारा मेरे इस पागलपन को, 
नन्हे सितारों ने 
अपनी दूधिया रोशनी में
खूब नहलाया मेरी प्रेम कविता को, 
कितने अभागे हो ना तुम 

जो 
ना कभी मेरे प्रेम के 
विलक्षण अहसास के साक्षी होते हो 
ना जान पाते हो कि 
कैसे जन्म लेती है कविता। 
लेकिन कितने भाग्यशाली हो तुम 
मेरे साथ तुम्हें समूची सांवल‍ी कायनात प्रेम करती है, 
और एक खूबसूरत कविता जन्म लेती है 
सिर्फ तुम्हारे कारण।

-स्मृति आदित्य जोशी "फाल्गुनी"

Friday, August 21, 2015

क्योंकि पेड़ कभी झूठ नहीं बोलते............'फाल्गुनी'











जब भी तुम निकलो अपने घर से
मुझसे मिलने के लिए 
तब रास्ते में मिलना 
गहरे हरे नीम से 
पूछना कि उसकी ठंडी छाँव के नीचे से
जब मैं गुजरती हूँ 
तब 'किसे' याद करती हूँ!

जब भी तुम निकलो मुझसे मिलने के लिए 
रास्ते में मिलना 
सिंदूर‍ी-पीले गुलमोहर से 
पूछना कि उसकी सुकोमल पत्तियों को 
सहेजते हुए 
मैं 'किसे' महसूस करती हूँ!

जब भी तुम निकलो मुझसे मिलने के लिए 
रास्ते में मिलना 
केसरिया आम के पेड़ से 
पूछना कि उसकी गुलाबी-ललछौंही आम्रमंजरियों को 
सूँघते हुए 
मैं 'किसकी' खुशबू लेती हूँ!

जब भी तुम निकलो मुझसे मिलने के लिए 
रास्ते में मिलना मंदिर के तुलसी चौरे से 
पूछना 
आते-जाते उसे देखते 
मैं 'किसकी' कुशलता की कामना करती हूँ!

जब भी तुम निकलो मुझसे मिलने के लिए 
रास्ते में मिलना 
उस क्षत-विक्षत बरगद से भी 
पूछना कि उसके लहूलुहान तने को देखकर 
मैं 'किस' अधूरे और बिखरे 'रिश्ते' के बारे में सोचती हूँ!

जब भी तुम निकलो मुझसे मिलने के लिए 
तब मिलना इन सबसे 
मुझे समझने के लिए, 
क्योंकि पेड़ कभी झूठ नहीं बोलते!

-  स्मृति आदित्य जोशी 'फाल्गुनी'
फेसबुक से...

Thursday, August 20, 2015

वो पल भर की नाराजगियाँ................अज्ञात शायर


मैं यादों का किस्सा खोलूँ तो,
कुछ दोस्त बहुत याद आते हैं.

मैं गुजरे पल को सोचूँ तो,
कुछ दोस्त बहुत याद आते हैं.

अब जाने कौन सी नगरी में,
आबाद हैं जाकर मुद्दत से.

मैं देर रात तक जागूँ तो ,
कुछ दोस्त बहुत याद आते हैं.

कुछ बातें थीं फूलों जैसी,
कुछ लहजे खुशबू जैसे थे,

मैं शहर-ए-चमन में टहलूँ तो,
कुछ दोस्त बहुत याद आते हैं.

वो पल भर की नाराजगियाँ,
और मान भी जाना पलभर में,

अब खुद से भी रूठूँ तो,
कुछ दोस्त बहुत याद आते हैं ।

-अज्ञात शायर

Tuesday, August 18, 2015


मैं सतत् अपने स्वभाव से जलता हूँ,

ना तुम्हारे कम होने से कम होता हूँ,

ना तुम्हारे बढ़ने से बढ़ता हूँ,

मेरी बात क्यों नहीं मानते...?

मैं सच कह रहा हूँ ऐ अंधकार!

मैं सतत् अपने स्वभाव से जलता हूँ...।

- स्वप्नेश चौहान

Sunday, August 16, 2015

लोग भी कमाल करते हैं…यशोदा












यूं तो
बेरंग हैं पानी 
फिर भी जिन्दगी 
कहलाती हैं,

ढेर सारे रंग हैं 
शराब के फिर भी 
गन्दगी कहलाती हैं।।

लोग भी कमाल करते हैं…

जिन्दगी के गम 
भुलाने के लिये, 
गन्दगी में जिन्दगी 
मिलाकर पीते हैं…

- मन की उपज

Sunday, August 9, 2015

जो राज़ का आलम था वही राज़ का आलम.....ग़ुलाम रब्बानी 'ताबाँ'




1914 - 1993

सर ता ब क़दम एक हसीं राज़ का आलम
अल्लाह रे इक फ़ित्ना-गर-ए-नाज़ का आलम

 ज़ुल्फ़ों में वो बरसात की रातों की जवानी
 आरिज़ पे वो अनवार-ए-सहर-साज़ का आलम

 उनवान-ए-सुख़न ‘ग़ालिब’ ओ ‘मोमिन’ का तग़ज़्ज़ुल
 अंदाज़-ए-नज़र बादा-ए-शीराज़ का आलम

 दुज़-दीदा निगाहों में इक इल्हाम की दुनिया
 नाज़ुक से तबस्सुम में इक एजाज़ का आलम

उलझे हुए जुमलों में शरारत भी हया भी
जज़्बात में डूबा हुआ आवाज़ का आलम

इस सादगी-ए-हुस्न में किस दर्जा कशिश है
हर नाज़ में इक जज़्बा-ए-ग़म्माज़ का आलम

 उस सैद को क्या कहिए जो ख़ुद आए तह-ए-दाम
 दिल में लिए इक हसरत-ए-परवाज़ का आलम

 यूँ तो न तसाहुल न तग़ाफ़ुल न तजाहुल
 कुछ और है उस काफ़िर-ए-तन्नाज़ का आलम

 शोख़ी में शरारत में मतानत में हया में
 जो राज़ का आलम था वही राज़ का आलम

-ग़ुलाम रब्बानी 'ताबाँ'

1914 - 1993
जन्म स्थान : फ़रूखाबाद, उत्तरप्रदेश

सौजन्य 

Tuesday, August 4, 2015

आसमाँ में घटा दो तरह की है............फ़े सीन एजाज़



क़ानून से हमारी वफ़ा दो तरह की है
इंसाफ दो तरह का, सज़ा दो तरह की है

एक छत पे तेज़ धूप है, एक छत पे बारिशें
क्या कहिये आसमाँ में घटा दो तरह की है

किस रुख से तुम को चाहें भला किस पे मर मिटें
सूरत तुम्हारी जलवानुमा दो तरह की है

काँटों को आब देती है फूलों के साथ साथ
अपने लिए तो बाद-ए-सबा दो तरह की है

खुश एक को करे है, करे है एक को नाखुश
महबूब एक ही है, अदा दो तरह की है

ऐसा करें कि आप कहीं और जा बसें
इस शहर में तो आब-ओ-हवा दो तरह की है

- फ़े सीन एजाज़ 

मूल रचना उर्दू व रोमन अंग्रेजी मे पढ़ने के लिए पधारें