Thursday, January 30, 2014

तू बहुत देर से मिला है मुझे....... अहमद फ़राज़




जिंदगी से यही गिला है मुझे 
तू बहुत देर से मिला है मुझे 

हमसफ़र चाहिये हुजूम नहीं 
इक मुसाफ़िर भी काफ़िला है मुझे 

तू महोब्बत से कोई चाल तो चल 
हार जाने का हौंसला है मुझे 

लब कुशा हूं तो इस यकिन के साथ 
क़त्ल होने का हौंसला है मुझे 

दिल धड़कता नहीं सुलगता है 
वो जो ख्वाहिश थी,आबला है मुझे 

कौन जाने कि चाहतो में फराज़ 
क्या गंवाया है क्या मिला है मुझे 

-अहमद फ़राज़

Wednesday, January 29, 2014

The Psychology Of Lying............Vishal Das

The Psychology Of Lying............


||**sonuvishal**||

YAHOO GROUP

Tuesday, January 28, 2014

क्या करे लोग जब ख़ुदा हो जाएँ........................ अहमद फ़राज़


इस से पहले की बेवफ़ा हो जाएँ 
क्यूं न ए दोस्त हम जुदा हो जाएँ 

तू भी हीरे से बन गया पत्थर
हम भी जाने क्या से क्या हो जाएँ

हम भी मजबूरियों का उज्र करें
फिर कहीं और मुब्तिला हो जाएँ

अब के गर तू मिले तो हम तुझसे
ऐसे लिपटे तेरी क़बा हो जाएँ

बंदगी हमने छोड़ दी फराज़
क्या करे लोग जब ख़ुदा हो जाएँ 
-अहमद फ़राज़

Sunday, January 26, 2014

कोई है साँप, कोई साँप का निवाला है...........मयंक अवस्थी


फ़लक है सुर्ख़ मगर आफ़ताब काला है
“अन्धेरा है कि तिरे शहर में उजाला है”

तमाम शहर का दस्तूर अब निराला है
कोई है साँप, कोई साँप का निवाला है

शबे-सफ़र तो इसी आस पर बितानी है
अजल के मोड़ के आगे बहुत उजाला है.

जहाँ ख़ुलूस ने खायी शिकस्त दुनिया से
वहीं जुनून ने उठ कर मुझे सम्भाला है

ग़ज़ल शिकेब की, यूँ बस गई है आँखों में
ग़ज़ल कहूँ कि कहूँ, आँसुओं की माला है

मयंक कौन है ? !!! वो पूछते हैं हैरत से
पर इस सवाल ने हमको तो मार डाला है

मयंक अवस्थी 08765213905

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अभी तलक ये जो इंसाँ है भोला-भाला है.....अहमद सोज़



कहीं सफ़ेद कहीं रंग इसका काला है
अँधेरा है कि तिरे शहर में उजाला है

अभी तलक तो है इंसानियत हमारे बीच
अभी तलक तो मुहब्बत का बोल-बाला है

वो जिसको पाँव की जूती समझ रहे थे सब
कभी वो लक्ष्मीबाई कभी मलाला है

ख़ला में शोर जमा कर रहा है दीवाना
अभी तलक ये जो इंसाँ है भोला-भाला है

ज़मीं गुनाहों के लावे से पक रही है अभी
ये सारा सब जो है धरती का इक निवाला है

लगाऊं सेंध किसी तरह उसके दिल तक मैं
ख़ज़ाना हुस्न का उसके चुराने वाला है

मिरा तो “सोज़” ही ईमान है मुहब्बत पर
मिरे लिये यही मस्जिद यही शिवाला है

अहमद सोज़ 09867220699

Friday, January 24, 2014

ये मेरे पांव जिन्‍हें चांदनी ने पाला है............नवनीत शर्मा


 तिरी अना ने सलीक़े से जो निकाला है
वो मेरे रुख़ पे मिरे दर्द का रिसाला है

कहूं या छोड़ूं ज़बां पर जो आने वाला है
जी..वो..मैं..हां..क‍ि ये मौसम बदलने वाला है

वो इक चराग़ जिसे ख़ून देके पाला है
सितम ये क्‍या कि हवा का वही निवाला है

तिरी तलाश में दिन-भर भटक के लौट आया
हुई है शाम तो खुद में उतरने वाला है

तुम्‍हारे जि़क्र की माचिस किसी ने दिखला दी
लो फिर से याद का जंगल सुलगने वाला है

तिरी तलाश में शोलों पे दौड़े हैं दिन-रात
ये मेरे पांव जिन्‍हें चांदनी ने पाला है

तिरे ख़याल से फुरसत मिले तो ग़ौर करूं
‘अंधेरा है कि तिरे शहर में उजाला है’

जहां से ख़ाब के पंछी उड़ान भरते थे
उसी शजर को हक़ीक़त ने काट डाला है

बहुत अज़ीज़ मुझे है मगर ये छूटेगा
मिरा ये जिस्‍म मिरी रूह का दुशाला है

हटो यहां से कि मलबे में दब न जाओ कहीं
खंडर ये दिल का ज़मींदोज़ होने वाला है

ये क्‍यों कहा कि तुझे रोज़ याद आऊंगा
कहीं ये सच तो नहीं तू बिछड़ने वाला है

बताते रहते हो खिड़की का जिसको तुम परदा
तुम्‍हारी दीद पे क़ाबिज़ मियां वो जाला है

बगैर ‘शिव’ के है आबाद शह्र लोहे का
बग़ैर शिव के कहां शह्र ये बटाला है *

मिलेगा तर्के-तअल्‍लुक़ से क्‍या उसे ‘नवनीत’
जो मुझपे बीता है उस पर गुज़रने वाला है

(विरह को सुल्‍तान मानने वाले 
दिवंगत पंजाबी शायर शिव बटालवी के लिए )

नवनीत शर्मा 
09418040160

Thursday, January 23, 2014

यहाँ तो झूट का ऐ यार बोलबाला है...........मुमताज़ नाज़ाँ



हक़ीक़तों की सदा कौन सुनने वाला है
यहाँ तो झूट का ऐ यार बोलबाला है

अब आज़माये हुए को भी आज़माना क्या
वो शख्स अपना हमेशा का देखा-भाला है

शफ़क़ के रुख़ पे शबे-ग़म का ख़ून बिखरा है
सहर का आज तो कुछ रंग ही निराला है

गिला करें भी तो बेमेहरियों का किस से करें
ज़मीर मुर्दा है और दिल सभी का काला है

है अपनी दुनिया तो दिल के नियाज़ख़ाने में
यही कलीसा है अपना यही शिवाला है

ग़ुरूरे-ज़ात सलामत, ये जाँ रहे न रहे
जिगर का ख़ून पिला कर अना को पाला है

हर एक याद शबे-ग़म में जगमगाती है
‘अंधेरा है, कि तेरे हिज्र में उजाला है’

है लबकुशाई भी संगीन जुर्म ऐ “मुमताज़”
हैं फ़िक्रें ज़ख़्मी, ज़ुबानों पे सब की ताला है

मुमताज़ नाज़ाँ 
09167666591 09867641102

http://wp.me/p2hxFs-1Dk

Wednesday, January 22, 2014

एक नया अनुभव.............हरिवंशराय बच्चन



मैंनें चिड़िया से कहा, मैं तुम पर एक
कविता लिखना चाहता हूं।

चिड़िया ने मुझसे पूछा, "तुम्हारे शब्दों में
मेरे परों की रंगीनी है ?"
मैंनें कहा, 'नहीं'
"तुम्हारे शब्दों में मेरे कंठ का संगीत है?"
'नहीं'
"तुम्हारे शब्दों में मेरे डैने की उड़ान है?"
'नहीं'
"जान है?"
'नहीं'

'तब तुम मुझ पर कविता क्या लिखोगे!'
मैंनें कहा, 'पर तुमसे मुझे प्यार है'
चिड़िया बोली,
'प्यार से शब्दों क्या सरोकार है.'

एक अनुभव हुआ नया.
मैं मौन हो गया!


-हरिवंशराय बच्चन
आज की मधुरिमा में प्रकाशित रचना

बीत न जाए शिशिर.................कुंती मुखर्जी


घटा हवा का ताप
बढ़ा मन का अभिलाष
पतझड़ के भय से
शिशिर रीत न जाए
बिन पिया,
गजरे का क्या मोल सखी।

खिली है गुलाबी धूप
देख! गगन का नीलाभ आंचल
श्वेत कपोत करते किल्लोल
यादों की डोर थामे
दुलारूं बीते दिनों को।

लिख दे प्रीतम को पाती
बीत न जाए कहीं
ये शिशिर के दिन सखी।

-कुंती मुखर्जी

Tuesday, January 21, 2014

वो ख्वाब....जो करीने-कयास थे................ज़हूर नज़र


दिन ऐसे तो यूं आए ही कब थे जो रास थे
लेकिन ये चंद रोज तो बेहद उदास थे

उनको भी आज मुझसे हैं लाखों शिकायतें
कल तक जो अहले-बज़्म सरापा-सियास थे

वो गुल भी ज़हर-ख़ंद की शबनम से अट गए
जो शाख़सार दर्दे - मुहब्बत की आस थे

मेरी बरहनगी पे हंसे हैं वो लोग भी
मशहूर शहर भर में जो नंगे-लिबास थे

इक लफ़्ज भी न मेरी सफ़ाई में कह सके
वो सारे मेहरबां जो मिरे आस-पास थे

तेरा तो सिर्फ़ नाम ही था, तू है क्यों मलूल
बाईस मिरे जुनू का तो मेरे हवास थे

वो रंग भी उड़े जो नज़र में न थे कभी
वो ख्वाब भी लुटे जो करीने-कयास थे

-ज़हूर नज़र
जन्मः 22 अगस्त, 1923, मिंटगुमटी, साहीवाल

अहले-बज़्मः सभा में उपस्थित, सरापा-सियासः बहुत अधिक गुणगान करने वाले, ज़हर-ख़ंदः खिसियानी, शाख़सारः जहां बहुत सारे पेड़ हों, बरहनगीः नग्नता, नंगे-लिबासः नग्न, मलूलः उदास, बाईसः कारण, हवासः इन्द्रियां, करीने-कयासः जो बात अटकल और अन्दाजे से ठीक हो

Sunday, January 19, 2014

धूप और छांव की दोस्ती अज़ब गुजरी....ज़हूर नज़र

* फ़स्ले-गुल *
हर घड़ी कयामत थी, ये न पूछ कब गुज़री
बस यी गनीमत है, तेरे बाद शब गुज़री

कुंजे-गम में एक गुल भी न खिल सका पूरा
इस बला की तेज़ी से सरसरे-तरब गुज़री

तेरे गम की खुशबू से ज़िस्मों-ज़ां महक उट्ठे
सांस की हवा जब भी छू के मेरे लब गुजरी

एक साथ रह कर भी दूर ही रहे हम-तुम
धूप और छांव की दोस्ती  अज़ब गुजरी

जाने क्या हुआ हमको अब के फ़स्ले-गुल में भी
बर्गे-दिल नहीं लरज़ा, तेरी याद जब गुज़री

बेक़रार, बेकल है ज़ां सुकूं के सहरा में
आज तक न देखी थी ये घड़ी जो अब गुजरी

बादे-तर्के-उलफ़त भी यूं न जिए, लेकिन
वक़्त बेतरह बीता,उम्र बेसबब गुज़री

किस तरह तराशोगे, तुहमते-हवस हमपर
ज़िन्दगी हमारी तो सारी बेतलब गुज़री

सरसरे-तरबः आनंद की हवा, फ़स्ले-गुलः वसंत ऋतु,
बर्गे-दिलः दिल का पता, बादे-तर्के-उलफ़तः प्रेम विच्छेदन का पश्चात, 
तुहमते-हवसः लोलुपता का आरोप

-ज़हूर नज़र
जन्मः 22 अगस्त, 1923, मिंटगुमटी, साहीवाल

Friday, January 17, 2014

अपना किरदार मोतबर रखना............ दानिश भारती



पाँव जब भी इधर-उधर रखना
अपने दिल में ख़ुदा का डर रखना

रास्तों पर कड़ी नज़र रखना
हर क़दम इक नया सफ़र रखना

वक़्त, जाने कब इम्तेहां माँगे
अपने हाथों में कुछ हुनर रखना


मंज़िलों की अगर तमन्ना है
मुश्किलों को भी हमसफ़र रखना

खौफ़, रहज़न का तो बजा, लेकिन
रहनुमा पर भी कुछ नज़र रखना

सख्त लम्हों में काम आएँगे
आँसुओं को सँभाल कर रखना

चुप रहा मैं, तो लफ़्ज़ बोलेंगे
बंदिशें मुझ पे, सोच कर रखना

आएँ कितने भी इम्तेहां  "दानिश"
अपना किरदार मोतबर रखना

-दानिश भारती

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रहज़न=लुटेरा, रहनुमा=मार्ग दर्शक, किरदार=चरित्र, मोतबर=निर्मल/साफ़

Thursday, January 16, 2014

एक ज़रा सा दिल टूटा है...............क़तील शिफ़ाई


सारी बस्ती में ये जादू नज़र आए मुझको
जो दरीचा भी खुले तो नज़र आए मुझको।।

सदियों का रस जगा मेरी रातों में आ गया
मैं एक हसीन शख्स की बातों में आ गया।।

जब तस्सवुर मेरा चुपके से तुझे छू आए
देर तक अपने बदन से तेरी खुश़बू आए।।

गुस्ताख हवाओं की शिकायत न किया कर
उड़  जाए  दुपट्टा  तो  खऩक  कर ।।

तुम पूछो और मैं न बताऊँ ऐसे हालात नहीं
एक ज़रा सा दिल टूटा है और कोई बात नहीं।।

रात के सन्नाटे में हमने क्या-क्या धोखे खाए हैं
अपना ही दिल धड़का तो हम समझे वो आए हैं।।
 

- क़तील शिफ़ाई

 

जन्मः दिसम्बर,1919, हरिपुर 
अवसानः जुलाई,2001, लाहोर

रसरंग,रविवार12, जनवरी,2014

Sunday, January 12, 2014

'फ़लसफ़ा प्रकृति का'..................शोभा रतूड़ी



बहारों में शाखों के पत्ते,
साँसों को रखते जवाँ,....
पतझर में झरते पत्ते,
ढलते मौसम को
करते बयाँ……!

मुरझाती टहनी का
एक पीला पत्ता....
जिंदगी की बगिया से
दरकिनार होता....
मौसम-ए-पतझर में
कैसे गुलज़ार रहता ?

ढलती हुई साँझ का
यही है.... फ़लसफ़ा....
दिए की टिमटिमाती लौ से
जैसे छँटता....
शाम का धुँधलका…! 



-शोभा रतूड़ी

Saturday, January 11, 2014

किसी ने तेज़ाब सा ज़हर डाला……….....रिंकी राउत


सर झुकए सब से नज़रे छुपाए
वो चले जा रही अपनी राह
सर का आँचल
चेहरा का नकाब
सब को संभाले
वो चली जा रही अपने राह

कुछ ने कहा वहीं है ये
इसी की कोई गलती होगी
कोई ऐसे ही नहीं डालेगा
तेज़ाब

लोगो की बातोँ की जलन ने
उसके अंदर के साहस को जलाया
उसे लगा एक बार फिर उस पर
किसी ने तेज़ाब सा ज़हर डाला

तेज़ाब से चेहरा जले तो एक बात
सपने,हौसले,रिश्ते इज़्जत तक
जल जाता है

तेज़ाब ने उसकी चमड़ी नहीं,
जिंदगी जला डाली
जलने का निशान गहरे ,
आत्मा तक पड़ गया

घुटन, बेबसी की एक काली जिंदगी
साथ लिए वो जी रही थी
आज वो चल पड़ी
मिटाने शरीर, आत्मा पर पड़े निशान
चल पड़ी अपने सम्मान, मान,
खोई जिन्दगी के लिए 

मंजिल की तलाश में

ताने दे चाहे कोई या 

खड़ा हो जाए राह में
तेज़ाब के जलन को छोड़ कर
आज निकल चली
नए असमान की तलाश में.
एक नए असमान की तलाश में………..


-रिंकी राउत

हर दहलीज़ दर्द कई समेटे होता है..............आशा गुप्ता 'आशु'



अब तुम कहते हो तो
सब सुनती हूँ बस सुनती हूं
उसी तरह जैसे पत्थरों पर गिरती है बूंदे
और सरक कर परे हो जाती हैं





एक आकार जो ...
अब बदलता ही नहीं
नहीं गढ़ता कोई मूरत और न कहानियां
ना कोई संवेदन और ना ही कोई आहट
तुमने अपने लिए अब
कितने नाम चुन लिए हैं
नादानी, बेवकूफी, पागलपन
और भी ना जाने क्या -क्या
और शब्द सिर्फ एक 'माफी'
समझदारी का ताज़ पहनाये
जो तुमने मुझे
कभी उसके पीछे की
कसमसाहट भी देखी होती
और जाना होता कि
हर चुप हज़ार दास्तानों में कैद होता है
हर दहलीज़ दर्द कई समेटे होता है
सुना तुमने....सुना श्वेताम्बरा ने.... ...


-आशा गुप्ता 'आशु'

मेरी नई फेसबुक मित्र
मेरी नई सखी....

Wednesday, January 8, 2014

तो इस पे बोसों की हम झालरें लगा देते............नवीन सी. चतुर्वेदी

 
तुम अपना चेहरा जो इन हाथों को थमा देते
तो इस पे बोसों की हम झालरें लगा देते

पलट के देखने भर से तो जी नहीं भरता
ये और करते कि थोड़ा सा मुस्कुरा देते

ये चाँद क्या है सितारे हैं क्या, जो कहते तुम
तुम्हारे क़दमों में हम कहकशां बिछा देते

तुम्हारे साथ उतर जाते हम भी बचपन में
तुम इस बदन को ज़रा सा जो गुदगुदा देते

तुम्हारे साथ रहे, ग़म मिला, ख़ुशी बाँटी
बस अपने साथ ही रहते तो सब को क्या देते

कहा तो होता कि तुम धूप से परेशां हो
हम अपने आप को दुपहर में ही डुबा देते

यहाँ उजालों ने आने से कर दिया था मना
वगरना किसलिये शोलों को हम हवा देते

हमारा सूर्य न होना हमारे हक़ में रहा
न जाने कितने परिंदों के पर जला देते

- नवीन सी. चतुर्वेदी
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Monday, January 6, 2014

कई फूलों से चेहरे आ गये मेरी इबादत में...............दिनेश नायडू


मैं अपने दिल में तेरी याद का सैलाब रखता हूँ
और इस तलवार से पर्वत का सीना चीर सकता हूँ

कई फूलों से चेहरे आ गये मेरी इबादत में
निगाहों में बहारों का मैं वो एहसास रखता हूँ

तिरी आँखों की गहराई का अंदाज़ा न था मुझको
मगर ये शक़ तो था शायद कभी मैं डूब सकता हूँ

मुझे ख़ामोशियों में ज़िन्दगी जीनी पड़ेगी अब
मैं इस दरजा किसी भी बात को कहने से डरता हूँ

तिरे जाने से क्या बदला मिरी दुनिया में मेरी जाँ
उसी शिद्दत से तुझको रोज़ मैं महसूस करता हूँ

हमेशा फ़ोन करके पूछता हूँ ” कैसी हो तुम अब “
वही इक बात सुन कर बोलता हूँ ” अब मैं रखता हूँ “

तुम अपने फ़ैसले को ठीक अब भी मानती हो क्या
मिरा क्या है कि मैं इस आग में हर रोज़ जलता हूँ

भरी है डायरी मेरी फ़क़त तेरी कहानी से
अक़ीदत से तिरी यादों को मैं हर रोज़ पढता हूँ

तिरी तस्वीर सीने से लगा रक्खी है, सिगरट है
यही वो ढंग है जिससे तुझे मैं दूर रखता हूँ

सवालों का यही उत्तर है दिल के पास मुद्दत से
बहुत अच्छा हूँ दीवाने धड़कना था धड़कता हूँ

सदा मेरी मुझी तक आ नहीं पायी मगर जानां
न जाने क्यूँ मुझे लगता है मैं भी चीख़ सकता हूँ

किया जिसने भी अपनी ज़िन्दगी को आशिक़ी के नाम
मैं उस हर एक शायर की किताबों में महकता हूँ

मुझे रिश्तों के भोलेपन पे इस दरजा भरोसा है
कोई गर बात इनकी छेड़ दे तो चुप ही रहता हूँ

तेरी गलियों के चुम्बक से ये मेरे पाँव चिपके हैं
मुझे कैसे भरोसा हो कि हाँ मैं चल भी सकता हूँ

दिनेश नायडू 09303985412

Sunday, January 5, 2014

ज़रा सा हक़ जताना चाहता हूँ............प्रखर मालवीय`कान्हा’


ख़ला को छू के आना चाहता हूँ
मैं ख़ुद को आज़माना चाहता हूँ

मेरी ख़्वाहिश तुझे पाना नहीं है
ज़रा सा हक़ जताना चाहता हूँ

तुझे ये जान कर हैरत तो होगी
मैं अब भी मुस्कुराना चाहता हूँ

तेरे हंसने की इक आवाज़ सुन कर
तेरी महफ़िल में आना चाहता हूँ

मेरी ख़ामोशियों की बात सुन लो
ख़मोशी से बताना चाहता हूँ

बहुत तब्दीलियाँ करनी हैं ख़ुद में
नया किरदार पाना चाहता हूं.....!!
-प्रखर मालवीय`कान्हा’

Friday, January 3, 2014

ख़ौफ़ दिल से उतर गया होता.............आलोक मिश्रा



सर से पानी गुज़र गया होता
ख़ौफ़ दिल से उतर गया होता

तू जो मुझको न भूल पता गर
तू भी मुझसा बिखर गया होता

आजिज़ी कितने काम आती है
सर उठाता तो सर गया होता

मुंतज़िर मेरा जो होता कोई
लौटकर मैं भी घर गया होता

ज़िंदगी हिज्र की बुरी है बहुत
इससे बेहतर था मर गया होता

आलोक मिश्रा 09876789610

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